(गत ब्लॉगसे आगेका)
शम, दम, तप, क्षमा आदि ब्राह्मणके स्वधर्म हैं (१८ । ४२) । इनके अतिरिक्त
पढ़ना-पढ़ाना, दान देना-लेना आदि भी ब्राह्मणके स्वधर्म हे । शौर्य,
तेज आदि क्षत्रियके स्वधर्म हैं (१८।४३) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके
अनुसार प्राप्त कर्तव्यका ठीक पालन करना भी क्षत्रियका ‘स्वधर्म’
है । खेती करना, गायोंका पालन करना और व्यापार करना वैश्यके ‘स्वधर्म’
हैं (१८ । ४४) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार कोई आवश्यक
कार्य सामने आ जाय तो उसे सुचारुरूपसे करना भी वैश्यका ‘स्वधर्म’
है । सबकी सेवा करना शूद्रका ‘स्वधर्म’
है (१८ । ४४) । इसके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त और
भी कर्मोंको सांगोपागं करना शूद्रका ‘स्वधर्म’
है ।
भगवान्ने कृपाके परवश होकर अर्जुनके माध्यमसे सभी मनुष्योंको एक विशेष बात बतायी
है कि तुम (उपर्युक्त कहे हुए) सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें
आ जाओ तो मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा,
तुम चिन्ता मत करो (१८ । ६६) । तात्पर्य यह है कि अपने-अपने
वर्ण-आश्रमकी मर्यादामें रहनेके लिये, अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये उपर्युक्त सभी धर्मोंका
पालन करना बहुत आवश्यक है और संसार-चक्रको दृष्टिमें रखकर इनका पालन करना ही चाहिये
(३ । १४‒१६); परंतु इनका आश्रय नहीं लेना चाहिये । आश्रय केवल भगवान्का ही लेना चाहिये । कारण कि वास्तवमें ये स्वयंके
धर्म नहीं हैं, प्रत्युत शरीरको लेकर होनेसे परधर्म ही हैं ।
भगवान्ने ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य’
(२ । ४०) पदोंसे समताको, ‘धर्मस्यास्य’
(९ । ३) पदसे ज्ञान-विज्ञानको और ‘धर्म्यामृतम्’ (१२ । २०) पदसे सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको भी ‘धर्म’
कहा है । इनको धर्म कहनेका तात्पर्य यह है कि परमात्माका स्वरूप
होनेसे समता सभी प्राणियोंका स्वधर्म (स्वयंका धर्म) है । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला
होनेसे ज्ञान-विज्ञान भी साधकका स्वधर्म है और स्वतःसिद्ध होनेसे सिद्ध भक्तोंके लक्षण
भी सबके स्वधर्म हैं ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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