।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७३, शनिवार
गीतामें ज्योतिष



महाप्रलयपर्यन्तं   कालचक्रं   प्रकीर्तितम् ।
कालचक्रविमोक्षार्थं श्रीकृष्णां शरणं व्रज ॥

ज्योतिषमें काल मुख्य है अर्थात् कालको लेकर ही ज्योतिष चलता है । उसी कालकों भगवान्‌ने अपना स्वरूप बताया है कि ‘गणना करनेवालोंमें मैं काल हूँ’‒‘कालः कलयतामहम्’ (१० । ३०) । उस कालकी गणना सूर्यसे होती है । इसी सूर्यको भगवान्‌ने ‘ज्योतिषां रविरंशुमान्’ (१० । २१) कहकर अपना स्वरूप बताया है ।

सत्ताईस नक्षत्र होते है । नक्षत्रोंका वर्णन भगवान्‌ने ‘नक्षत्राणामहं शशी’ (१० । २१) पदोंसे किया है । इनमेंसे सवा दो नक्षत्रोंकी एक राशि होती है । इस तरह सत्ताईस नक्षत्रोंकी बारह राशियों होती है । उन बारह राशियोंपर सूर्य भ्रमण करता है अर्थात् एक राशिपर सूर्य एक महीना रहता है । महीनोंका वर्णन भगवान्‌ने ‘मासानां मार्गशीर्षोऽहम्’ (१० । ३५) पदोंसे किया है । दो महीनोंकी एक ऋतु होती है, जिसका वर्णन ‘ऋतूनां कुसुमाकरः’ पदोंसे किया गया है । तीन ऋतुओंका एक अयन होता है । अयन दो होते हैं‒उत्तरायण और दक्षिणायन; जिनका वर्णन आठवें अध्यायके चौबीसवें-पचीसवें श्लोकोंमें हुआ है । इन दोनों अयनोंको मिलाकर एक वर्ष होता है । लाखों वर्षोंका एक युग होता है[*] जिसका वर्णन भगवान्‌ने ‘सम्भवामि युगे युगे’ (४ ।८) पदोंसे किया है । ऐसे चार (सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि) युगोंकी एक चतुर्युगी होती है । ऐसी एक हजार चतुर्युगीका ब्रह्माका एक दिन (सर्ग) और एक हजार चतुर्युगीकी ही ब्रह्माकी एक रात (प्रलय) होती है, जिसका वर्णन आठवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है । इस तरह ब्रह्माकी सौ वर्षकी आयु होती है । ब्रह्माकी आयु पूरी होनेपर महाप्रलय होता है, जिसमें सब कुछ परमात्मामें लीन हो जाता है । इसका वर्णन भगवान्‌ने ‘कल्पक्षये’ (९ । ७) पदसे किया है । इस महाप्रलयमें केवल ‘अक्षयकाल’-रूप एक परमात्मा ही रह जाते है, जिसका वर्णन भगवान्‌ने ‘अहमेवाक्षयः कालः’ (१० । ३३) पदोंसे किया है ।

तात्पर्य यह हुआ कि महाप्रलयतक ही ज्योतिष चलता है अर्थात् प्रकृतिके राज्यमें ही ज्योतिष चलता है, प्रकृतिसे अतीत परमात्मामें ज्योतिष नहीं चलता । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह इस प्राकृत कालचक्रसे छूटनेके लिये, इससे अतीत होनेके लिये अक्षयकाल-रूप परमात्माकी शरण ले ।

‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे




[*] सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्षोंका ‘सत्ययुग’, बारह लाख छियानबे हजार वर्षोंका ‘त्रेतायुग’, आठ लाख चौसठ हजार वर्षोंका ‘द्वापरयुग’ और चार लाख बत्तीस हजार वर्षोंका ‘कलियुग’ होता है ।