।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७३, रविवार
गीता और गुरु-तत्त्व


ग्रन्थस्य कृष्णस्य कृपा सतां  च  सर्वत्र सर्वेषु च विद्यमाना ।
यावन्न ताञ्छ्रद्दधते मनुष्यस्तावन्न साक्षात्कुरुते स्वबोधम् ॥

अर्जुन हरदम भगवान्‌के साथ ही रहते थे; भगवान्‌के साथ ही खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते थे; परंतु भगवान्‌ने उनको गीताका उपदेश तभी दिया जब उनके भीतर अपने श्रेयकी कल्याणकी, उद्धारकी इच्छा जाग्रत् हो गयी‒‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२ । ७) । ऐसी इच्छा जाग्रत् होनेके बाद वे अपनेको भगवान्‌का शिष्य मानते हैं और भगवान्‌के शरण होकर शिक्षा देनेके लिये प्रर्थना करते हैं‒‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (२ । ७) इस प्रकार कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होनेके बाद अर्जुनने अपनेको भगवान्‌का शिष्य मानकर शिक्षा देनेके लिये भगवान्‌से प्रार्थना की है, न कि गुरु-शिष्य-परम्पराकी रीतिसे भगवान्‌को गुरु माना है । भगवान्‌ने भी शास्त्रपद्धतिके अनुसार अर्जुनको शिष्य बनानेके बाद, गुरु-मन्त्र देनेके बाद, सिरपर हाथ रखनेके बाद उपदेश दिया हो‒ऐसी बात नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि पारमार्थिक  उन्नतिमें गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़ना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत अपनी तीव्र जिज्ञासा, अपने कल्याणकी तीव्र लालसाका होना ही अत्यन्त आवश्यक है । अपने उद्धारकी जोरदार लगन होनेसे साधकको भगवत्कृपासे, संत-महात्माओंके वचनोंसे, शास्त्रोंसे, ग्रथोंसे, किसी घटना-परिस्थितिसे, किसी वायुमण्डलसे अपने-आप पारमार्थिक उन्नतिकी बातें, साधन-सामग्री मिल जाती है और वह उसे ग्रहण कर लेता है ।

गीता बाह्य-विधियोंको, बाह्य परिवर्तनको उतना आदर नहीं देती, जितना आदर भीतरके भावोंको, विवेकको, बोधको, जिज्ञासाको, त्यागको देती है । यदि गीता बाह्य विधियोंको, परिवर्तनको, गुरु-शिष्यके सम्बन्धको ही आदर देती तो वह सब सम्प्रदायोंके लिये उपयोगी तथा आदरणीय नहीं होती अर्थात् गीता जिस सम्प्रदायकी विधियोंका वर्णन करती, वह उसी सम्प्रदायकी मानी जाती । फिर गीता प्रत्येक सम्प्रदायके लिये उपयोगी नहीं होती और उसके पठन-पाठन, मनन-चिन्तन आदिमें सब सम्प्रदायवालोंकी रुचि भी नहीं होती । परंतु गीताका उपदेश सार्वभौम है । वह किसी विशेष सम्प्रदाय या व्यक्तिके लिये नहीं है, प्रत्युत मानवमात्रके लिये है ।

गीताने ज्ञानके प्रकरणमें ‘प्रणिपातेन परिप्रश्नेन’ (४ । ३४) और ‘आचर्योपासनम्’ (१३ । ७) पदोंसे आचार्यकी सेवा, उपासनाकी बात कही है । उसका तात्पर्य यही है कि ज्ञानमार्गीं साधकमें ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा अभिमान रहनेकी ज्यादा सम्भावना रहती है । अतः साधकको चेतानेके लिये तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त आचार्य या गुरुकी अधिक आवश्यकता रहती है । परंतु वह आवश्यकता भी तभी रहती है, जब साधकमें तीव्र जिज्ञासाकी कमी हो अथवा उसकी ऐसी भावना हो कि गुरुजी उपदेश देंगे, तभी ज्ञान होगा । तीव्र जिज्ञासा होनेपर साधक तत्त्वका अनुभव किये बिना किसी भी अवस्थामें संतोष नहीं कर सकता, किसी भी सम्प्रदायमें अटक नहीं सकता और किसी भी विशेषताको लेकर अपनेमें अभिमान नहीं ला सकता । ऐसे साधककी जिज्ञासा-पूर्ति भगवत्कृपासे हो जाती है ।

गुरु-शिष्यके सम्बन्धसे ही ज्ञान होता है‒ऐसी बात देखनेमें नहीं आती । कारण कि जिन लोगोंने गुरु बना लिया है, गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार कर लिया है; उन सबको ज्ञान हो गया हो ऐसा देखनेमें नहीं आता । परंतु तीव्र जिज्ञासा होनेपर ज्ञान हो जाता है‒ऐसा देखनेमें, सुननेमें आता है । तीव्र जिज्ञासुके लिये गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार करना आवश्यक नहीं है । तात्पर्य है कि जबतक स्वयंकी तीव्र जिज्ञासा नहीं होती, तबतक गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार करनेपर भी ज्ञान नहीं होता और तीव्र जिज्ञासा होनेपर साधक गुरु-शिष्यके सम्बन्धके बिना ही किसीसे भी ज्ञान ले लेता है । तीव्र जिज्ञासावाले साधकको भगवान् स्वप्नमें भी शुकदेव आदि (जो पहले हो गये हैं) सन्तोंसे मन्त्र दिला देते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे