।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल तृतीया, वि.सं.२०७४, गुरुवार
गीतामें चार आश्रम



यथा सर्वेषु शास्त्रेषु प्रोक्ताश्चत्वार आश्रमाः ।
गीतया न तथा प्रोक्ताः  संकेतेनैव दर्शिताः ॥

गीतामें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र‒इन चारों वणोंका वर्णन तो स्पष्टरूपसे आया है; जैस‒‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम्’ (४ । १३); ‘ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप’ (१८ । ४१) आदि; परंतु ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास‒इन चारों आश्रमोंका वर्णन स्पष्टरूपसे नहीं आया है । इन चारों आश्रमोंका वर्णन गीतामें गौणतासे, संकेतरूपसे माना जा सकता है; जैसे ‒

(१) जिस परमात्मतत्त्वकी इच्छा रखकर ब्रह्मचारीलोग ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं‒‘यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति’ (८ ।११) पदोंसे ब्रह्मचर्य-आश्रमका संकेत मान सकते हैं ।

(२) जो मनुष्य दूसरोंको उनका भाग न देकर स्वयं अकेले ही भोग करता है, वह चोर ही है‒‘तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः (३ । १२); जो केवल अपने शरीरके पोषणके लिये ही पकाते हैं; वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते हैं‒‘भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्’ (३ । १३) आदि पदोंसे गृहस्थ-आश्रमका संकेत मान सकते हैं ।

(३) कितने ही मनुष्य तपस्यारूप यज्ञ करनेवाले हैं‒‘तपोयज्ञाः’ पदसे वानप्रस्थ-आश्रमका संकेत मान सकते हैं ।

(४) जिसने सब प्रकारके संग्रहका सर्वथा त्याग कर दिया है‒‘त्यक्तसर्वपरिग्रहः’ (४ । २१) पदोंसे संन्यास- आश्रमका संकेत मान सकते हैं ।

गीतामें वणोंका स्पष्टरूपसे और आश्रमोंका संकेतरूपसे वर्णन करनेका कारण यह है कि उस समय प्राप्त कर्तव्य‒कर्मरूप युद्धका प्रसंग था, आश्रमोंका नहीं । अतः भगवान्‌ने गीतामें वर्णगत कर्तव्य-कर्मका ज्यादा वर्णन किया है । उसमें भी अगर देखा जाय तो क्षत्रियके कर्तव्य-कर्मका जितना वर्णन है, उतना ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रके कर्तव्य-कर्मका वर्णन नहीं है ।

आश्रमोंका स्पष्टरूपसे वर्णन न करनेका दूसरा कारण यह है कि अन्य शास्त्रोंमें जहाँ आश्रमोंका वर्णन हुआ है, वहाँ क्रमशः आश्रम बदलनेकी बात कही गयी है । आश्रम बदलनेकी बात भी मनुष्योके कल्याणके लिये ही है । परंतु गीताके अनुसार अपना कल्याण करनेके लिये आश्रम बदलनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत जो जिस परिस्थितिमें, जिस वर्ण, आश्रम आदिमें स्थित है, उसीमें रहते हुए वह अपने कर्तव्यका पालन करके अपना कल्याण कर सकता है । इतना ही नहीं, युद्ध-जैसे घोर कर्ममें लगा हुआ मनुष्य भी अपना कल्याण कर सकता है । तात्पर्य है कि आश्रमोंके भेदसे जीवके कल्याणमें भेद नहीं होता । वर्णोंका भेद भी कर्तव्य-कर्मकी दृष्टिसे ही है अर्थात् जो भी कर्तव्य-कर्म किया जाता है, वह वर्णकी दृष्टिसे किया जाता है । इसलिये भगवान्‌ने चारों वर्णोंका स्पष्ट वर्णन किया है । वर्णोंका वर्णन करनेसे चारों आश्रमोंका वर्णन भी उसके अन्तर्गत आ जाता है । इस दृष्टिसे भी स्वतन्त्ररूपसे आश्रमोंका वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं होती ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे