ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये‒इसीमें सब दुःख भरे हुए हैं ।
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हमारा सम्मान हो‒इस चाहनाने ही हमारा
अपमान किया है ।
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मनमें किसी वस्तुकी चाह रखना ही दरिद्रता है । लेनेकी इच्छावाला
सदा दरिद्र ही रहता है ।
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नाशवान्की इच्छा ही अन्तःकरणकी अशुद्धि है ।
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मनुष्यको कर्मोंका त्याग नहीं करना है, प्रत्युत कामनाका त्याग
करना है ।
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मनुष्यको वस्तु गुलाम नहीं बनाती,
उसकी इच्छा गुलाम बनाती है ।
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यदि शान्ति चाहते हो तो कामनाका त्याग करो ।
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कुछ भी लेनेकी इच्छा भयंकर दुःख देनेवाली है ।
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जिसके भीतर इच्छा है,
उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही पड़ेगा ।
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अपने लिये सुख चाहना आसुरी,
राक्षसी वृत्ति है ।
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जैसे बिना चाहे सांसारिक दुःख मिलता है,
ऐसे ही बिना चाहे सुख भी मिलता है । अतः साधक सांसारिक सुखकी
इच्छा कभी न करे ।
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भोग और संग्रहकी इच्छा सिवाय पाप करानेके और कुछ काम नहीं आती
। अतः इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये ।
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अपने लिये भोग और संग्रहकी इच्छा करनेसे मनुष्य पशुओंसे भी नीचे गिर जाता है तथा इसकी इच्छाका त्याग
करनेसे देवताओंसे भी ऊँचे उठ जाता है ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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