।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७३, रविवार
कामना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जो वस्तु हमारी है, वह हमें मिलेगी ही; उसको कोई दूसरा नहीं ले सकता । अतः कामना न करके अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये ।
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जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय‒यह इच्छा जबतक रहेगी, तबतक शान्ति नहीं मिल सकती ।
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मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंको चाहता है‒यह आश्चर्यकी बात है !
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शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे ही नाशवान्‌की इच्छा होती है और इच्छा होनेसे ही शरीरमें अपनी स्थिति दृढ़ होती है ।
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कुछ चाहनेसे कुछ मिलता है और कुछ नहीं मिलता; परन्तु कुछ न चाहनेसे सब कुछ मिलता है ।
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निन्दा इसलिये बुरी लगती है कि हम प्रशंसा चाहते हैं । हम प्रशंसा चाहते हैं तो वास्तवमें हम प्रशंसाके योग्य नहीं हैं; क्योंकि जो प्रशंसाके योग्य होता है, उसमें प्रशंसाकी चाहना नहीं रहती ।
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दूसरोंसे अच्छा कहलानेकी इच्छा बहुत बड़ी निर्बलता है । इसलिये अच्छे बनो, अच्छे कहलाओ मत ।
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सांसारिक सुखकी इच्छाका त्याग कभी-न-कभी तो करना ही पडे़गा तो फिर देरी क्यों ?
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जहाँतक बने, दूसरोंकी आशापूर्तिका उद्योग करो, पर दूसरोंसे आशा मत रखो ।
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विचार करो, जिससे आप सुख चाहते हैं, क्या वह सर्वथा सुखी है ? क्या वह दुःखी नहीं है ? दुःखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा ?
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कामना छूटनेसे जो सुख होता है, वह सुख कामनाकी पूर्तिसे कभी नहीं होता ।
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  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे