(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्माकी उत्कट अभिलाषा चाहते हो तो संसारकी अभिलाषाको छोड़ो
।
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जो बदलनेवाले (संसार) की इच्छा करता है,
उससे सुख लेता है, वह भी बदलता रहता है अर्थात् अनेक योनियोंमें जन्मता-मरता रहता
है ।
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जिसको हम सदाके लिये अपने पास नहीं रख सकते,
उसकी इच्छा करनेसे और उसको पानेसे भी क्या लाभ ?
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कामनाके कारण ही कमी है । कामनासे रहित होनेपर कोई कमी बाकी
नहीं रहेगी ।
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कामनाका सर्वथा त्याग कर दें तो आवश्यक वस्तुएँ स्वतः प्राप्त
होंगी; क्योंकि वस्तुएँ निष्काम पुरुषके पास आनेके लिये लालायित रहती
हैं ।
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जो अपने सुखके लिये वस्तुओंकी इच्छा करता है,
उसको वस्तुओंके अभावका दुःख भोगना ही पडे़गा ।
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जिसके भीतर कोई भी इच्छा नहीं होती,
उसकी आवश्यकताओंकी पूर्ति प्रकृति स्वतः करती है ।
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जो सदा हमारे साथ नहीं रहेगा और हम सदा जिसके साथ नहीं रहेंगे,
उसको प्राप्त करनेकी इच्छा करना अथवा उससे सुख लेना मूर्खता
है, पतनका कारण है ।
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सुखकी इच्छासे सुख नहीं मिलता‒यह नियम है ।
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चाहे साधु बनो, चाहे गृहस्थ बनो, जबतक कामना (कुछ पानेकी इच्छा) रहेगी,
तबतक शान्ति नहीं मिल सकती ।
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अगर शान्ति चाहते हो तो ‘यों होना चाहिये,
यों नहीं होना चाहिये’‒इसको छोड़ दो और ‘जो भगवान् चाहें,
वही होना चाहिये’‒इसको स्वीकार कर लो ।
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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