(गत ब्लॉगसे आगेका)
शिष्य दुर्लभ है, गुरु नहीं । सेवक दुर्लभ है,
सेव्य नहीं । जिज्ञासु दुर्लभ है,
ज्ञान नहीं । भक्त दुर्लभ है,
भगवान् नहीं ।
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जो हमारेसे धन-सम्पत्ति, सुख-सुविधा, मान-आदर, पूजा-सत्कार आदि
कुछ भी चाहता है, वह हमारा कल्याण नहीं कर सकता ।
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जगत्, जीव और परमात्मा‒इन तीनोंको न जानना अन्धकार है । जो
इस अन्धकारको मिटा दे, वह गुरु है ।
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गुरु शिष्यके लिये होता है,
शिष्य गुरुके लिये नहीं होता । राजा प्रजाके लिये होता है,
प्रजा राजाके लिये नहीं होती ।
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भगवान् जगद्गुरु होते हुए भी मनुष्यको कभी चेला नहीं बनाते,
प्रत्युत सखा ही बनाते हैं ।
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गुरु शिष्यको कोई नया ज्ञान नहीं देता,
प्रत्युत उसके भीतर पहलेसे विद्यमान जो ज्ञान है,
उसको ही जाग्रत् करता है ।
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सच्चा गुरु दूसरेको गुरु ही बनाता है,
चेला नहीं बनाता । जो चेला बनाना चाहता है,
वह चेलादास होता है ।
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हमारा वास्तविक गुरु हमारे भीतर है,
वह है‒विवेक । यह विवेक भगवान्ने दिया है । भगवान्ने अपने
कल्याणके लिये मनुष्यशरीर दे दिया, सब साधन-सामग्री दे दी तो क्या गुरुको बाकी छोड़ दिया !
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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