(गत ब्लॉगसे आगेका)
शरीर-निर्वाहके लिये तो चिन्ता (विचार) करनेकी जरूरत ही नहीं
है, पर शरीर छूटनेके बाद क्या होगा‒इसके लिये चिन्ता करनेकी बहुत जरूरत है ।
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जो होनेवाला है, वह होकर ही रहेगा और जो नहीं होनेवाला है, वह
कभी नहीं होगा, फिर चिन्ता किस बातकी ?
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हमें अपने लिये कुछ नहीं चाहिये;
क्योंकि स्वरूपमें अभाव नहीं है और शरीरको जो चाहिये,
वह प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही निश्चित है,
फिर चिन्ता किस बातकी ?
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भगवान्की ओरसे हमारे निर्वाहका प्रबन्ध तो है,
पर भोगका प्रबन्ध नहीं है । इसलिये निर्वाहकी चिन्ता और भोगकी
इच्छा नहीं करनी चाहिये ।
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भगवान् जो कुछ करते हैं और करेंगे,
उसीमें मेरा हित है‒ऐसा विश्वास करके हर परिस्थितिकी प्राप्तिमें
निश्चिन्त रहना चाहिये ।
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दुःख-चिन्ताका कारण वस्तुओंका अभाव नहीं है,
प्रत्युत मूर्खता है । यह मूर्खता सत्संगसे मिटती है ।
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मनुष्य ज्यों-ज्यों अपने शरीरकी चिन्ता छोड़ता है,
त्यों-त्यों उसके शरीरकी चिन्ता संसार करने लगता है ।
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भगवान्के भरोसे रहनेपर किसी प्रकारकी चिन्ता टिक ही नहीं सकती
।
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जिसे नहीं करना चाहिये,
उसे करनेसे और जिसे करना चाहिये,
उसे नहीं करनेसे ही चिन्ता और भय होते हैं ।
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भगवान् हमसे ज्यादा जानते हैं,
हमसे ज्यादा समर्थ हैं और हमसे ज्यादा दयालु हैं,
फिर हम चिन्ता क्यों करें ?
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(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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