।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७४, शनिवार
धर्मकी महत्ता और आवश्यकता



मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है । यद्यपि विवेक प्राणिमात्रमें विद्यमान है, तथापि सत्-असत् और कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक मनुष्यशरीरमें ही है । यह विवेक व्यवहार और परमार्थमें, लोक और परलोकमें सब जगह काम आता है । इसलिये श्रीमद्‌भगवद्‌गीताके उपदेशमें भगवान्‌ने सबसे पहले सत्-असत्, शरीरी-शरीरके विवेकका विवेचन किया (गीता २ । ११‒३०) । परन्तु जिन मनुष्योंकी बुद्धि तीक्ष्ण नहीं है और वैराग्य भी कम है, उनके लिये सत्-असत्‌के विवेकको समझना कठिन पड़ता है । इसलिये ऐसे मनुष्योंके लिये भगवान्‌ने कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेचन किया ( गीता २ । ३१‒३८) और अकर्तव्यका त्याग करके कर्तव्यका अर्थात् धर्मका पालन करनेकी प्रेरणा की । कारण कि सत्-असत्‌के विवेकको महत्त्व देनेसे जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व अपने कर्तव्यका अर्थात् स्वधर्मका पालन करनेसे भी मिल जाता है ।[1]

वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार अपने-अपने कर्तव्यका निःस्वार्थभावसे पालन करनेका नाम ‘स्वधर्म’ है । कर्तव्य और धर्म‒दोनों एक ही हैं । मनुष्यको परिस्थिति-रूपसे जो कर्तव्य प्राप्त हो जाय, उसका पालन करना भी मनुष्यका धर्म है । जैसे, कोई विद्यार्थी है तो तत्परतासे विद्या पढ़ना उसका धर्म है । कोई शिक्षक है तो विद्यार्थियोंको तत्परतासे पढ़ाना उसका धर्म है । कोई साधक है तो तत्परतासे साधन करना उसका धर्म है । जिसमें दूसरेके अहितका, अनिष्टका भाव होता है, वह चोरी, हिंसा आदि कर्म किसीके भी धर्म नहीं हैं, प्रत्युत कुधर्म अथवा अधर्म हैं ।

मनुष्यमात्रका खास धर्म है‒स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना और किसीको कभी किंचिन्मात्र भी दुःख न देना । दूसरेका कर्तव्य देखना अथवा दूसरेकी निन्दा, तिरस्कार करना भी किसीका कर्तव्य अर्थात् धर्म नहीं है । वास्तवमें धर्म वही है, जिससे अपना भी हित हो और दूसरेका भी हित हो, अभी (वर्तमानमें) भी हित हो और परिणाम (भविष्य)-में भी हित हो, लोकमें भी हित हो और परलोकमें भी हित हो‒

यतोऽभ्युदयनि श्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
                                           (वैशेषिक १ । २)

अर्जुन क्षत्रिय थे; अत क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे भगवान् कहते हैं‒

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ    कौन्तेय        युद्धाय   कृतनिश्चयः ॥
                                                     (गीता २ । ३७)

‘अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा । अतः हे कुन्तीनन्दन ! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ।’

तात्पर्य है कि अपने धर्मका पालन करनेसे लोक और परलोक दोनों सुधर जाते हैं अर्थात् लोकमें सुख-शान्ति हो जाती है, समाज सुखी हो जाता है और परलोकमें स्वर्गादि ऊँचे लोकोंकी प्राप्ति होती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे




[1] सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
   एकमप्यास्थितः     सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥
   यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं    तद्योगैरपि गम्यते ।
   एकं सांख्य च योगं च  यः पश्यति स पश्यति ॥
                                                       (गीता ५ । ४-५)