।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.२०७३, शनिवार
तत्त्वज्ञान



(गत ब्लॉगसे आगेका)
जबतक अपनेमें राग-द्वेष हैं, तबतक तत्त्वबोध नहीं हुआ है, केवल बातें सीखी हैं ।
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तत्त्वज्ञान होनेमें कई जन्म नहीं लगते, उत्कट अभिलाषा हो तो मिनटोंमें हो सकता है; क्योंकि तत्त्व सदा-सर्वदा विद्यमान है ।
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तत्त्वज्ञान अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत अपने विवेकको महत्त्व देनेसे होता है । अभ्याससे एक नयी अवस्था बनती है, तत्त्व नहीं मिलता ।
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जबतक तत्त्वज्ञान नहीं हो जाता, तबतक सब प्राणी कैदी हैं । कैदीका लक्षण है‒पापकर्म करे अपनी मरजीसे और दुःख भोगे दूसरेकी मरजीसे ।
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 ‘मैं ब्रह्म हूँ’यह अनुभव नहीं है, प्रत्युत अहंग्रह-उपासना है । इसलिये तत्त्वज्ञान होनेपर ‘मैं ब्रह्म हूँ’यह अनुभव नहीं होता ।
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तत्त्वज्ञान होनेपर काम-क्रोधादि विकारोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है ।
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जबतक हमारी दृष्टिमें असत्‌की सत्ता है, तबतक विवेक है । असत्‌की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है ।
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अपनेमें और दूसरोंमें निर्दोषताका अनुभव होना तत्त्वज्ञान है, जीवन्मुक्ति है ।
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तत्त्वज्ञान होनेपर ज्ञानी पुरुष परिस्थितिसे रहित नहीं होता, प्रत्युत सुख-दुःखसे रहित होता है ।
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तत्त्वज्ञान शरीरका नाश नहीं करता, प्रत्युत शरीरके सम्बन्धका अर्थात्‌ अहंता-ममताका नाश करता है ।
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तत्त्वज्ञान अर्थात् अज्ञानका नाश एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है ।
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जैसा है, वैसा अनुभव कर लेनेका नाम ही ‘ज्ञान’ है । जैसा है नहीं, वैसा मान लेनेका नाम ‘अज्ञान’ है ।
                                          

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे