।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
दोषदृष्टि



(गत ब्लॉगसे आगेका)
अपनेमें गुणोंका अभिमान होनेसे ही दूसरोंमें दोष दीखते हैं और दूसरोंमें दोष देखनेसे अपना अभिमान पुष्ट होता है ।
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जो साधक अपने दोषोंको मिटाना चाहता है, उसे दूसरेके दोषोंकी ओर नहीं देखना चाहिये । दूसरोंके दोष देखनेसे अपने दोष पुष्ट होते हैं और दोषोंके साथ सम्बन्ध हो जानेसे नये-नये दोष उत्पन्न होते हैं ।
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दूसरोंके दोष देखनेसे न हमारा भला होता है, न दूसरोंका ।
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मनुष्यका अन्तःकरण जितना दोषी (मलिन) होता है, उतना ही उसको दूसरोंमें दोष दीखता है । रेडियोकी तरह मलिन अन्तःकरण ही दोषको पकड़ता है ।
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यदि आप चाहते हैं कि कोई भी मुझे बुरा न समझे तो दूसरेको बुरा समझनेका आपको कोई अधिकार नहीं है ।
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किसीको भी बुरा न समझनेसे भलाई भीतरसे प्रकट होती है । भीतरसे प्रकट हुई भलाई ठोस और व्यापक होती है ।
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यदि आप अपनी निर्दोषताको सुरक्षित रखना चाहते हैं तो किसीमें भी दोष न देखें; न अपनेमें, न दूसरेमें ।
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दूसरेको निर्दोष बनानेकी नीयतसे उसके दोष देखनेमें बुराई नहीं है । बुराई है‒दूसरेके दोष दीखनेपर प्रसन्न होना ।
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सबका स्वरूप स्वतः निर्दोष है । अतः पुत्र, शिष्य आदिको स्वरूपसे निर्दोष मानकर और उनमें दीखनेवाले दोषको आगन्तुक मानकर ही उनको शिक्षा देनी चाहिये, उनके आगन्तुक दोषको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।
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अगर हम दूसरेमें दोष मानेंगे तो उसमें वे दोष आ जायँगे; क्योंकि उसमें दोष देखनेसे हमारा त्याग, तप, बल आदि भी उस दोषको पैदा करनेमें स्वाभाविक सहायक बन जायँगे, जिससे वह व्यक्ति दोषी हो जायगा और हमारा भी नुकसान होगा ।


  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे