।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७३, बुधवार
धन



(गत ब्लॉगसे आगेका)
रुपयोंको सबसे बढ़िया मानना बुद्धि भ्रष्ट होनेका लक्षण है ।
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धर्मके लिये धन नहीं चाहिये, मन चाहिये ।
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धन किसीको भी अपना गुलाम नहीं बनाता । मनुष्य खुद ही धनका गुलाम बनकर अपना पतन कर लेता है ।
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रुपयोंके कारण कोई सेठ नहीं बनता, प्रत्युत कँगला बनता है ! वास्तवमें सेठ वही है, जो श्रेष्ठ है अर्थात् जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये ।
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अभी जो धन मिल रहा है, वह वर्तमान कर्मका फल नहीं है, प्रत्युत प्रारब्धका फल है । वर्तमानमें धन-प्राप्तिके लिये जो झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी आदि करते हैं, उसका फल (दण्ड) तो आगे मिलेगा !
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अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन हमारे काम आ जाय‒यह नियम नहीं है; परन्तु उसका दण्ड भोगना पड़ेगा‒यह नियम है ।
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जहाँ रुपयोंकी जरूरत होती है, वहाँ परमार्थ नहीं होता, प्रत्युत रुपयोंकी गुलामी होती है ।
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जैसे अपना दुःख दूर करनेके लिये रुपये खर्च करते हैं, ऐसे ही दूसरेका दुःख दूर करनेके लिये भी खर्च करें, तभी हमें रुपये रखनेका हक है ।
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धनके लिये झूठ, कपट, बेईमानी आदि करनेसे जितनी हानि होती है, उतना लाभ होता ही नहीं अर्थात् उतना धन आता ही नहीं और जितना धन आता है, उतना पूरा-का-पूरा काम आता ही नहीं । अतः थोड़ेसे लाभके लिये इतनी अधिक हानि करना कहाँकी बुद्धिमानी है ?

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  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे