(गत ब्लॉगसे आगेका)
रुपयोंको सबसे बढ़िया मानना बुद्धि भ्रष्ट होनेका लक्षण है ।
ᇮ
ᇮ ᇮ
धर्मके लिये धन नहीं चाहिये,
मन चाहिये ।
ᇮ
ᇮ ᇮ
धन किसीको भी अपना गुलाम नहीं बनाता । मनुष्य खुद ही धनका गुलाम
बनकर अपना पतन कर लेता है ।
ᇮ
ᇮ ᇮ
रुपयोंके कारण कोई सेठ नहीं बनता,
प्रत्युत कँगला बनता है ! वास्तवमें सेठ वही है,
जो श्रेष्ठ है अर्थात् जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये ।
ᇮ
ᇮ ᇮ
अभी जो धन मिल रहा है,
वह वर्तमान कर्मका फल नहीं है,
प्रत्युत प्रारब्धका फल है । वर्तमानमें धन-प्राप्तिके लिये
जो झूठ, कपट, बेईमानी, चोरी आदि करते हैं,
उसका फल (दण्ड) तो आगे मिलेगा !
ᇮ
ᇮ ᇮ
अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन हमारे काम आ जाय‒यह नियम नहीं है;
परन्तु उसका दण्ड भोगना पड़ेगा‒यह नियम है ।
ᇮ
ᇮ ᇮ
जहाँ रुपयोंकी जरूरत होती है,
वहाँ परमार्थ नहीं होता,
प्रत्युत रुपयोंकी गुलामी होती है ।
ᇮ
ᇮ ᇮ
जैसे अपना दुःख दूर करनेके लिये रुपये खर्च करते हैं,
ऐसे ही दूसरेका दुःख दूर करनेके लिये भी खर्च करें,
तभी हमें रुपये रखनेका हक है ।
ᇮ
ᇮ ᇮ
धनके लिये झूठ, कपट, बेईमानी आदि करनेसे जितनी हानि होती है,
उतना लाभ होता ही नहीं अर्थात् उतना धन आता ही नहीं और जितना
धन आता है, उतना पूरा-का-पूरा काम आता ही नहीं । अतः थोड़ेसे लाभके लिये
इतनी अधिक हानि करना कहाँकी बुद्धिमानी है ?
ᇮ ᇮ ᇮ
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
|