।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
नामजप



(गत ब्लॉगसे आगेका)
नामजप अभ्यास नहीं है, प्रत्युत पुकार है । अभ्यासमें शरीर-इन्द्रियाँ-मनकी और पुकारमें स्वयंकी प्रधानता रहती है ।
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नामजप सभी साधनोंका पोषक है ।
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भगवन्नाम सबके लिये खुला है और जीभ अपने मुखमें है, फिर भी नरकोंमें जाते हैं‒यह बड़े आश्चर्यकी बात है !
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भगवान्‌का होकर नाम लेनेका जो माहात्म्य है, वह केवल नाम लेनेका नहीं है । कारण कि नामजपमें नामी (भगवान्) का प्रेम मुख्य है, उच्चारण (क्रिया) मुख्य नहीं है ।
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संख्या (क्रिया) की तरफ वृत्ति रहनेसे निर्जीव जप होता है और भगवान्‌की तरफ वृत्ति रहनेसे सजीव जप होता है । इसलिये जप और कीर्तनमें क्रियाकी मुख्यता न होकर प्रेमभावकी मुख्यता होनी चाहिये कि हम अपने प्यारेका नाम लेते हैं !
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भगवान्‌का कौन-सा नाम और रूप बढ़िया है‒यह परीक्षा न करके साधकको अपनी परीक्षा करनी चाहिये कि मुझे कौन-सा नाम और रूप अधिक प्रिय है ।
पाप और पुण्य
कोई हमारा अपकार करता है तो उससे वस्तुतः हमारा उपकार ही होता है; क्योंकि उसके अपकारसे हमारे पाप कटते हैं ।
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दूसरोंकी बुराई करनेसे तो पाप लगता ही है, बुराई सुनने और कहनेसे भी पाप लगता है ।
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अपने कल्याणकी तीव्र इच्छा होनेपर साधकके पाप नष्ट हो जाते हैं ।
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भगवान्‌से विमुख होकर संसारके सम्मुख होनेके समान कोई पाप नहीं है ।
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  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे