(गत ब्लॉगसे आगेका)
अब मैं पुनः पाप नहीं करूँगा‒यह पापका असली प्रायश्चित्त है
।
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मनुष्यजन्ममें किये हुए पाप नरकों एवं चौरासी लाख योनियोंमें
भोगनेपर भी समाप्त नहीं होते, प्रत्युत शेष रह जाते हैं और जन्म-मरणका कारण बनते हैं ।
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जहाँ मनुष्य अनुकूलतासे सुखी और प्रतिकूलतासे दुःखी होता है,
वहाँ ही वह पाप-पुण्यसे बँधता है ।
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नाशवान्को महत्त्व देना ही बन्धन है ।
इसीसे सब पाप पैदा होते हैं ।
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अगर सुखकी इच्छा है तो पाप करना न चाहते हुए भी पाप होगा । सुखकी
इच्छा ही पाप करना सिखाती है । अतः पापोंसे छूटना हो तो सुखकी इच्छाका त्याग करो ।
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जहाँ दूसरोंको दुःख देनेकी और अपना मतलब सिद्ध करनेकी नीयत होती
है, वहीं पाप लगता है और बन्धन होता है ।
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छिपानेसे पाप और पुण्य‒दोनों विशेष फल देनेवाले हो जाते हैं
। इसलिये अपने पाप तो प्रकट कर देने चाहिये,
पर पुण्य प्रकट नहीं करने चाहिये‒‘छीजहिं
निसिचर दिनु अरु राती । निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥’ (मानस, लंका॰ ७२ । २) ।
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किसी व्यक्तिको भगवान्की तरफ लगानेके समान कोई पुण्य नहीं है,
कोई दान नहीं है ।
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मुझे सुख मिल जाय‒यह सब पापोंकी जड़ है ।
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पहले पाप कर लें, पीछे प्रायश्चित्त कर लेंगे‒इस प्रकार जान-बूझकर किये गये पाप
प्रायश्चित्तसे नष्ट नहीं होते ।
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नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे
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