(गत ब्लॉगसे आगेका)
हरदम भगवान्से प्रार्थना करते रहो कि ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’
। भगवान्के दर्शनके बिना हरदम बेचैनी रहे,
कहीं भी मन नहीं लगे,
कोई बात सुहाये नहीं । भगवान्के सिवाय और कोई बात याद ही नहीं
आये । वास्तवमें भगवान् हमारे भीतर हैं । उनको बार-बार ‘हे मेरे
नाथ ! हे मेरे प्रभो पुकारो और समझो कि भगवान् मेरे भीतर हैं; उनसे
मैं कह रहा हूँ और वे सुन रहे हैं, मुझे देख रहे हैं । एक जन्मकी माँ भी पुकारनेसे आ
जाती है, फिर भगवान् तो सदाकी माँ हैं ! वे जरूर आयेंगे !
भगवान्को प्रकट करनेके लिये, उनका
प्रेम प्राप्त करनेके लिये भगवान्को अपना मानना बहुत जरूरी है । जैसे बालक कहता है कि माँ मेरी है,
ऐसे भगवान् मेरे हैं । भगवान्में
मेरापन प्रेमका मन्त्र है, जिससे भगवान् प्रकट हो जाते हैं । आपके भीतर यह भाव आना चाहिये कि मेरी माँ मेरेको गोदमें क्यों
नहीं लेती ?
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श्रोता‒भगवान्
सभीके हृदयमें विराजमान हैं, फिर
भी मनुष्यके द्वारा गलत काम क्यों होता है ?
स्वामीजी‒क्या आपने भगवान्से प्रार्थना की है कि महाराज,
मेरे द्वारा गलत काम न हो ?
भगवान्का जबर्दस्ती करनेका स्वभाव बिल्कुल नहीं है । अच्छे
सन्त-महात्मा भी बात कह देते हैं, पर जबर्दस्ती नहीं करते । हरेकको बात कहनेमें भी वे संकोच करते
हैं । विशेष कृपा होती है, तब कहते हैं । भगवान्ने अठारह अक्षौहिणी सेनामें केवल अर्जुनको
ही उपदेश दिया, दूसरोंको क्यों नहीं दिया ?
चोर-डाकू जबर्दस्ती करते हैं । आपके घर साधु आयेगा तो भिक्षाके
लिये आवाज दे देगा, आप नहीं बोलो तो चल देगा । परन्तु डाकूको नहीं बोलो तो क्या
वह चल देगा ?
भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहते हैं । उनके बिना कोई
प्राणी-पदार्थ है ही नहीं । वे स्वतः-स्वाभाविक सबमें परिपूर्ण हैं । पर वे विधि-निषेध
करनेके लिये सबमें परिपूर्ण नहीं हैं । जैसे गायके भीतर रहनेवाला घी गायके काम नहीं
आता, ऐसे ही भगवान् सबमें व्यापक रहते हुए भी काम नहीं आते । प्रार्थना करनेपर वे काम
आते हैं । अगर भगवान् विधि-निषेध करें तो सब शास्त्र निरर्थक हो जायँगे,
गुरु निरर्थक हो जायगा,
शिक्षा निरर्थक हो जायगी !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |