।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
श्रीपरशुराम-जयन्ती
बिन्दुमें सिन्धु



(गत ब्लॉगसे आगेका)

तत्त्वका अनुभव बताया नहीं जा सकता । जैसे, कोई मिस्री खाये तो वह यह नहीं बता सकता कि मिस्री कैसी मीठी होती है; बताशे जैसी मीठी होती है या पिण्डखजूर अथवा गुड जैसी ? वह कोई भी उपमा देकर मिस्रीका स्वाद नहीं बता सकता । मिस्रीका स्वाद मिस्री लेनेसे ही पता लगता है । अगर हम अनुभवकी व्याख्या करें तो यह कहेंगे कि तत्त्वका अनुभव होनेपर हमारे मनमें किसी भी वस्तुका खिंचाव नहीं रहता । बढ़िया-से-बढ़िया पदार्थमें भी मन खिंचता नहीं । रसबुद्धि निवृत्त हो जाती है । जैसे भोजन करनेपर तृप्ति हो जाती है, अन्न-जलकी आवश्यकता नहीं रहती, ऐसे ही परमात्माका अनुभव होनेपर सर्वथा तृप्ति हो जाती है । भोजन करनेके कुछ समय बाद फिर भूख लग जाती है, पर तत्त्वका अनुभव होनेपर सदाके लिये तृप्ति हो जाती है । कुछ करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता । उस अनुभवको वाणीसे कैसे बतायें ?

☀☀☀☀☀

श्रोता‒कारणशरीर क्या होता है ?

स्वामीजी‒तीन शरीर हैं‒स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर । स्थूलशरीरमें क्रिया’ होती है, सूक्ष्मशरीरमें चिन्तन’ होता है और कारणशरीरमें स्थिरता’ होती है । सूक्ष्मशरीर सत्रह तत्त्वोंका होता है‒पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि । मनुष्यका स्वभाव (आदत) और अज्ञान (अनजानपना) कारणशरीरमें रहते हैं । परमात्मप्राप्ति स्थिरतासे भी अलग है । चंचलता और स्थिरताका जो ज्ञान (बोध) है, वह स्वयंमें रहता है । तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्ति होनेपर स्थूल, सूक्ष्म अथवा कारण‒किसी भी शरीरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता ।

समाधि कारणशरीरमें होती है, जिसमें व्युत्थान होता है । जबतक समाधि और व्युत्थान दोनों होते हैं, तबतक वह साधक है, सिद्ध नहीं है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर व्युत्थान नहीं होता । वह सहजावस्था होती है, जिसमें कारणशरीरसे भी सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है ।

श्रोता‒झूठ बोलना पाप है, पर बिना झूठ बोले व्यापार होता नहीं ?

स्वामीजी‒ऐसी बात नहीं है । बिना झूठ बोले भी व्यापार हो सकता है ।

श्रोता‒व्यापारमें झूठसे कमाया हुआ धन काममें लेनेसे पूरे परिवारको दोष लगेगा या केवल कमानेवालेको दोष लगेगा ?

स्वामीजी‒मुख्य दोष कमानेवालेको लगेगा । परिवारको कुछ अंशमें दोष लगेगा । अगर परिवारवाले कहते हैं कि तुम पाप करो, तो पापमें सहमत होनेके कारण वे भी पापके भागीदार हो जायँगे ।

श्रोता‒लोभ कैसे मिटे ?

स्वामीजी‒लोभ दानसे मिटता है । अपनी बढ़िया-से-बढ़िया चीज दूसरेके काम आ जाय तो उसमें प्रसन्नता हो । दूसरा कोई चीज ले ले तो मनमें प्रसन्नता होनी चाहिये । यह प्रसन्नता बढ़ जानेसे लोभ मिट जायगा ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे