(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रायः लोग कर्मोंका आश्रय लिया करते हैं कि अमुक कर्म करके
हम अमुक फलको प्राप्त कर लेंगे ।[*] परन्तु कर्मोंके द्वारा प्राप्त होनेवाला फल नाशवान् होता है
। कारण कि जब कर्मोंका भी आदि और अन्त होता है, तो फिर उसका फल अविनाशी कैसे होगा ? अतः भगवान् कहते हैं
कि कर्तव्य-कर्मका आश्रय न लेकर मेरा (भगवान्का) ही आश्रय लेना चाहिये‒
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज
।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गीता १८ । ६६)
‘सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी
शरणमें आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर ।’
तात्पर्य है कि अपने धर्मका पालन तो अवश्य करना चाहिये, पर आश्रय धर्मका न लेकर भगवान्का ही लेना चाहिये । धर्मका पालन तो शरीरको लेकर
होता है, पर भगवान्का आश्रय स्वयंको लेकर होता है । धर्मका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, पर भगवान्का आश्रय लेनेसे मोक्षके साथ-साथ परमप्रेमकी भी प्राप्ति
होती है । मोक्षमें तो अखण्ड
(एकरस) आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त (प्रतिक्षण वर्धमान) आनन्द है ।
भगवान्ने मनुष्यको दूसरोंकी सेवाके लिये ‘कर्म-सामग्री’
दी है, असत्से सम्बन्ध-विच्छेद करके सत्-तत्त्वको जाननेके
लिये ‘विवेक’ दिया है और अपने (भगवान्के) साथ सम्बन्ध जोड़नेके लिये ‘प्रेम’ दिया
है । परन्तु मनुष्य भगवान्की दी हुई सामग्रीका दुरुपयोग करके कर्म-सामग्रीको अपने
सुखभोगमें लगा देता है, विवेकको दूसरोंका नाश करनेके उपायोंमें लगा देता है और प्रेमको
संसारमें (आसक्ति-रूपसे) लगा देता है । इस प्रकार भगवान्से मिली हुई वस्तुका दुरुपयोग करनेसे अपना और दूसरोंका, सबका पतन होता है । इस पतनसे धर्म ही रक्षा कर सकता है । कारण कि धर्म ही मनुष्योंको
अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंका हित करना सिखाता है । धर्म ही मनुष्योंको
मर्यादामें रखता है, उनको उच्छृंखल नहीं होने देता । धर्म ही समाजमें संघर्षको मिटाकर
शान्तिकी स्थापना करता है । धर्म ही मनुष्यमें मनुष्यता लाता है । धर्म (कर्तव्य)-का
पालन करनेसे ही मनुष्य ऊँचा उठता है । यदि मनुष्य धर्मका त्याग कर दे तो वह पशुओंसे
भी नीचा हो जायगा । इसलिये मनुष्यको किसी भी अवस्थामें अपने
धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये । महाभारतके अन्तमें भगवान् वेदव्यासजी कहते
हैं‒
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्
धर्मं
त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो नित्यो
हेतुरस्य त्वनित्यः ॥
(स्वर्गा॰ ५ । ६३)
‘कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचानेके लिये भी अपने धर्मका त्याग न करे; क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य हैं । इसी प्रकार
जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु (राग) अनित्य है ।’
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
(गीता ४
। १२)
|