।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७४, सोमवार
धर्मकी महत्ता और आवश्यकता



(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रायः लोग कर्मोंका आश्रय लिया करते हैं कि अमुक कर्म करके हम अमुक फलको प्राप्त कर लेंगे ।[*] परन्तु कर्मोंके द्वारा प्राप्त होनेवाला फल नाशवान् होता है । कारण कि जब कर्मोंका भी आदि और अन्त होता है, तो फिर उसका फल अविनाशी कैसे होगा ? अतः भगवान् कहते हैं कि कर्तव्य-कर्मका आश्रय न लेकर मेरा (भगवान्‌का) ही आश्रय लेना चाहिये‒

सर्वधर्मान्परित्यज्य    मामेकं    शरणं     व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                                  (गीता १८ । ६६)

‘सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर ।’

तात्पर्य है कि अपने धर्मका पालन तो अवश्य करना चाहिये, पर आश्रय धर्मका न लेकर भगवान्‌का ही लेना चाहिये । धर्मका पालन तो शरीरको लेकर होता है, पर भगवान्‌का आश्रय स्वयंको लेकर होता है । धर्मका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, पर भगवान्‌का आश्रय लेनेसे मोक्षके साथ-साथ परमप्रेमकी भी प्राप्ति होती है । मोक्षमें तो अखण्ड (एकरस) आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त (प्रतिक्षण वर्धमान) आनन्द है ।

भगवान्‌ने मनुष्यको दूसरोंकी सेवाके लिये ‘कर्म-सामग्री’ दी है, असत्‌से सम्बन्ध-विच्छेद करके सत्-तत्त्वको जाननेके लिये ‘विवेक’ दिया है और अपने (भगवान्‌के) साथ सम्बन्ध जोड़नेके लिये ‘प्रेम’ दिया है । परन्तु मनुष्य भगवान्‌की दी हुई सामग्रीका दुरुपयोग करके कर्म-सामग्रीको अपने सुखभोगमें लगा देता है, विवेकको दूसरोंका नाश करनेके उपायोंमें लगा देता है और प्रेमको संसारमें (आसक्ति-रूपसे) लगा देता है । इस प्रकार भगवान्‌से मिली हुई वस्तुका दुरुपयोग करनेसे अपना और दूसरोंका, सबका पतन होता है । इस पतनसे धर्म ही रक्षा कर सकता है । कारण कि धर्म ही मनुष्योंको अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंका हित करना सिखाता है । धर्म ही मनुष्योंको मर्यादामें रखता है, उनको उच्छृंखल नहीं होने देता । धर्म ही समाजमें संघर्षको मिटाकर शान्तिकी स्थापना करता है । धर्म ही मनुष्यमें मनुष्यता लाता है । धर्म (कर्तव्य)-का पालन करनेसे ही मनुष्य ऊँचा उठता है । यदि मनुष्य धर्मका त्याग कर दे तो वह पशुओंसे भी नीचा हो जायगा । इसलिये मनुष्यको किसी भी अवस्थामें अपने धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये । महाभारतके अन्तमें भगवान् वेदव्यासजी कहते हैं‒

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥
(स्वर्गा ५ । ६३)

‘कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचानेके लिये भी अपने धर्मका त्याग न करे; क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य हैं । इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु (राग) अनित्य है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे



[*] काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
   क्षिप्रं हि मानुषे लोके   सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥
                                                    (गीता ४ । १२)