।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७४, गुरुवार
एकादशी-व्रत कल है
राजाका कर्तव्य



सामाजिक व्यवस्थापर समाजका अधिकार है, राजा (शासक या सरकार) का अधिकार नहीं । अतः समाजके नियम बनाना राजाका कर्तव्य नहीं है । विवाह, व्यापार, जीविका, सन्तानोत्पत्ति, वर्णाश्रमधर्मका पालन आदि प्रजाके धर्म हैं । प्रजाके धर्मोंमें हस्तक्षेप करना राजाका कर्तव्य नहीं है । अगर राजा उनमें हस्तक्षेप करता है तो यह अन्याय है । राजाका मुख्य कर्तव्य है‒प्रजाकी रक्षा करना और उससे बलपूर्वक धर्मका पालन करवाना ।

कोई धर्मका उल्लंघन न करे, इसलिये धर्मका पालन करवाना राजाका अधिकार है । परन्तु धर्मशास्त्रके विरुद्ध कानून बनाना राजाका घोर अन्याय है । हिन्दू एकसे अधिक विवाह न करे, अमुक उम्रमें विवाह करे, दोसे अधिक सन्तान पैदा न करे आदि कानून बनाना राजाका अधिकार नहीं है । राजाका कर्तव्य अपने राज्यमें जन्म लेनेवाले प्रत्येक व्यक्तिके जीवन-निर्वाहकी व्यवस्था करना है, न कि उसके जन्मपर ही रोक लगा देना । अपने धर्म, वर्ण, आश्रम, जाति आदिके अनुसार आचरण करना प्रजाका अधिकार है । अगर प्रजा धर्म, वर्णाश्रम आदिकी मर्यादाके विरुद्ध चले तो उसको शासनके द्वारा मर्यादामें लगाना राजाका कर्तव्य है ।

एष राज्ञां परो धर्मो ह्यार्तानामार्तिनिग्रहः ।
                                                           (श्रीमद्भा १ । १७ । ११)

‘राजाओंका परम धर्म यही है कि वे दुःखियोंका दुःख दूर करें ।’

राज्ञो हि परमो धर्मः   स्वधर्मस्थानुपालनम् ।
शासतोऽन्यान् यथाशास्त्रमनापद्युत्पथानिह ॥
                                           (श्रीमद्भा १ । १७ । १६)

‘बिना आपत्तिकालके मर्यादाका उल्लंघन करनेवालोंको शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्ममें स्थित लोगोंका पालन करना राजाओंका परम धर्म है ।’

य  उद्धरेत्करं   राजा  प्रजा  धर्मेष्वशिक्षयन् ।
प्रजानां शमलं भुङ्क्ते भगं च स्वं जहाति सः ॥
                                        (श्रीमद्भा ४ । २१ । २४)

‘जो राजा प्रजाको धर्ममार्गकी शिक्षा न देकर केवल उससे कर वसूल करनेमें लगा रहता है, वह केवल प्रजाके पापका ही भागी होता है और अपने ऐश्वर्यसे हाथ के बैठता है ।’

श्रेयः प्रजापालनमेव राज्ञो यत्साम्पराये सुकृतात् षष्ठमंशम् ।
हर्तान्यथा   हृत्युण्यः    प्रजानामरक्षिता  करहारोऽघमत्ति ॥
                                       (श्रीमद्भा ४ । २० । १४)

‘राजाका कल्याण प्रजापालनमें ही है । इससे उसे परलोकमें प्रजाके पुण्यका छठा भाग मिलता है । इसके विपरीत जो राजा प्रजाकी रक्षा तो नहीं करता, पर उससे कर वसूल करता जाता है, उसका सारा पुण्य प्रजा छीन लेती है और बदलेमें उसे प्रजाके पापका भागी होना पड़ता है ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘आवश्यक चेतावनी’ पुस्तकसे