।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
वैशाख शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७४, बुधवार
संसारमें रहनेकी विद्या



वास्तवमें अभिमान और ममताका त्याग कठिन है । परंतु एक बात आपको बतायी जाती है, भाई-बहन अपने-अपने घरोंमें उसका अनुष्ठान करें, उसके अनुसार अपना जीवन बनायें, तो बहुत सुगमतासे अभिमान और ममताका त्याग हो सकता है । घरोंमें प्रायः दो बातोंको लेकर लड़ाई होती है । काम-धन्धा तो तुम करो और चीज-वस्तु मैं लूँ । आराम, आदर, सत्कार−सब कुछ  मेरेको मिले । काम-धन्धा और खर्च तुम करो । इन बातोंको लेकर खटपट चलती है । अगर इनको उलट दिया जाय अर्थात् काम-धन्धा मैं करूँ, आराम आप करो । आदर-सत्कार, मान-प्रशंसा−ये लेनेकी नहीं देनेकी हैं, तो दूसरोंका आदर करें, मान दें, आराम दें, सत्कार करें, उनकी आज्ञा पालन करें, उनको सुख पहुँचायें, ऐसे आपसमें किया जाय तो प्रेम बढ़ता है ।

         मनुष्यका स्वभाव है कि वह अपने मनकी बात पूरी करना चाहता है और अपने मनकी होनेसे राजी होता है । धनकी, मानकी, बड़ाईकी, जीनेकी कामना होती है । परंतु इन कामनाओंमें मूल कामना यह है कि मेरे मनकी बात हो जाय । यह बात बढ़िया नहीं है । अपने मनकी बातका आग्रह छोड़कर औरोंके मनकी बात करता चला जाय तो निहाल हो जाय । केवल दो बातोंका ख्याल करना है कि उनकी बात न्याययुक्त हो और अपनी सामर्थ्यमें हो । इसका एक सरल उपाय है । यह निश्चय कर लें कि हमें संसारसे लेना नहीं है−संसारकी सेवा करनी है । क्यों करनी है ? क्योंकि पहले लिया है इसलिये अब देना है । संसारको देना है, संसारसे लेना नहीं है ।

         एक मार्मिक बात बतायें, आप ध्यान देकर सुनें । मानव-शरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिए मिला है । संसारमें रहनेकी एक रीति है । उस रीतिको हम धारण करें तो परमात्माकी प्राप्ति बहुत सुगमतासे हो जाय । हरेक काम करनेकी एक विद्या होती है, यदि उसके अनुसार काम करते हैं तो वह काम पूरा हो जाता है । संसारमें रहनेकी भी एक विद्या है तो उस विद्याको भी जानना चाहिये । उस विद्याको काममें लें तो बड़ी सुगमतासे संसारमें रहेंगे और संसारको पार कर जायेंगे । वह विद्या क्या है ? जिसने जिसके साथ जो सम्बन्ध मान रखा है, उसके अनुसार बड़ी तत्परतासे अपने कर्तव्यका पालन करे और उससे अपनी कोई भी इच्छा न रखे, कामना न रखे, वासना न रखे । अपने लेना नहीं है, देना है । यह शरीर है, संसारसे सुख लेनेके लिए नहीं मिला है ।

एहि तन कर फल बिषय न भाई ।

         शरीरका फल तो सेवा करना है । माताके लिए पुत्र बनो तो सपूत बनो । माँकी सेवा करनी है । माताके पास जो रुपये हैं, गहने-कपड़े हैं, तो यही कहो कि माँ, जो तुम्हारे पास है उसे हमारी बहिनको दे दो । छोटे भाई या बड़े भाईको दे दो । मेरे ऊपर तो आप एक ही कृपा करो कि सेवा मेरेसे ले लो । माँ-बापकी सेवासे आदमी उऋण नहीं हो सकता । उनका जितना भी ऋण हमारे ऊपर है, उसे हम चुका नहीं सकते । ऋणको अदा नहीं कर सकते । कोई उपाय नहीं है । तो क्या है ? सेवा करके उनकी प्रसन्नता ले लो । प्रसन्नता लेनेसे वह ऋण माफ हो जाता है ।

               (शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे