।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७४, मंगलवार
सबका कल्याण कैसे हो ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)


इस प्रकार सब-का-सब काम धन्धा भगवान्‌का है और सब-का-सब समय भगवान्‌का । अब रह गये व्यक्ति । ये हमारे भाई-बन्धु, माता-पिता, स्त्री-पुत्र, कुटुम्बी, प्रेमी-सम्बन्धी हैं–ये सब व्यक्ति हैं । ये भी भगवान्‌के हैं । ये भगवान्‌के हैं तो भगवान्‌के जनोंकी सेवा कैसे करनी है ? जैसे श्रेष्ठ बहू अपने सासकी सेवा करती है, इसी प्रकार सासको अपने बहूके प्रति कर्तव्य-पालन करना है यानी उसे सुख देना है, अपना सुख लेना नहीं है, अपना सुख लेना तो हमारा उद्देश्य नहीं है, अपना सुख न लेकर उसको सुख कैसे पहुँचाना है ? माता सीताको और कौसल्या अम्बाको याद कर लो । माँ कौसल्या तो यह कहती हैं कि मैंने दीपककी बत्ती भी ठीक करनेके लिये सीताको कभी नहीं कहा और भूमिपर, जो कठोर है; पैर नहीं रखने दिया । ऐसा तो माता कौसल्याने किया और सीता कहती हैं–मैं बड़ी अभागिनी हूँ कि मैंने आपकी सेवा नहीं की । दोनोंको पश्चाताप इसीका है । बहूको यह विचार नहीं कि सासने मुझे सुख नहीं दिया और सासको यह विचार नहीं कि बहूने मेरा धन्धा नहीं किया । विचार यही है कि प्रभुका काम करना है । अतः इसकी सेवा कर देना है । जैसे वह प्रसन्न रहे, उसका हित हो, वैसे कर दे और अनुकूल बननेकी भावना रखे ।

इसी तरह जितने भी कुटुम्बी हैं, सभी भगवान्‌के हैं । अब विचार करें, उनमें हमें दो विभाग जान पड़ते हैं कि ये तो हमारे कुटुम्बी हैं, हमारे सम्प्रदायके हैं और ये हमारे नहीं हैं । ये हमारे कुटुम्बी हैं–इसका अर्थ यह हुआ कि इस कुटुम्बकी सेवा करना मेरा पहला कर्तव्य, धर्म है; क्योंकि इस कुटुम्बका मैं ऋणी हूँ, इसलिये इसका ऋण पहले चुकाना है और जो हमारे नहीं जान पड़ते, समय-समयपर उनकी भी सेवा करनी है । यानि उनकी सेवा करनेकी अधिक आवश्यकता होनेपर समय निकालकर पहले उनकी सेवा करे । सेवा क्यों करनी है ? भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये; क्योंकि ये भगवान्‌के हैं । ‘ये हमारे हैं’इसका तात्पर्य होता है कि इनकी सेवा विशेषतासे कर देनी है; क्योंकि वे हमसे विशेषतासे सेवा चाहते हैं । अतः उनकी सेवा पहले कर दो और विशेषतासे कर दो । परन्तु मानो यह कि ये भगवान्‌के हैं, मेरे नहीं हैं । इनमें जो ‘मेरापन’ प्रतीत होता है, इसका अर्थ यह है कि हमें उनको सुख पहुँचाना है, इसलिये ये हमारे कुटुम्बी हैं; यह भावना सदा जाग्रत् रखे ।

अब अन्तमें रहीं वस्तुएँ । वस्तुओंका उपयोग अलग-अलग होगा । भोजनकी थाली-गिलासका उपयोग अलग होगा, लिखनेकी कलमका उपयोग अलग होगा । वस्तुएँ अलग-अलग काममें आती हैं । यह अलग-अलग उपयोग किसलिये है ? भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये । इनको भगवान्‌की सेवामें लेना है । ये अपनी और ये दूसरेकी–भगवान्‌के नाते तो यह विभाग है नहीं । किंतु जो हमारी कहलाती है, उस अपनी वस्तुसे पहले काम लेना है । इस तरह इन वस्तुओंसे प्रभुकी और प्रभुके जनोंकी सेवा करनी है ।

तात्पर्य क्या निकला ? यही कि कोई-सा भी काम भगवान्‌का न हो–ऐसा नहीं । कोई-सा भी क्षण भगवान्‌का न हो, ऐसा नहीं । कोई-सा भी व्यक्ति भगवान्‌का न हो, ऐसा नहीं और कोई-सी भी वस्तु भगवान्‌की न हो, ऐसा नहीं । अब बताइये, निरन्तर भजनके सिवा और क्या हुआ ? अतः निरन्तर भजन–निरन्तर साधन हो जायगा । 

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘एकै साधै सब सधै’ पुस्तकसे