।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७४, बुधवार
सबका कल्याण कैसे हो ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)


तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
                                                (गीता ८/७)

सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च–यहाँ ‘युध्य च’ कहनेका अर्थ है–समय-समयपर जो आवश्यक काम आ पड़े वह करना, परन्तु करना भगवान्‌की आज्ञासे और उनकी प्रसन्नताके लिये । अर्जुनने और क्या किया ? जब वे कर्णको मारने लगे तब कर्णने कहा–‘अर्जुन ! तुम अन्याय करते हो ।’ भगवान्‌ने कहा–‘अर्जुन ! कर्णको बाण मार दो ।’ अर्जुन बोले–‘हमें तो न्याय-अन्याय कुछ नहीं देखना है, हमें तो प्रभुकी आज्ञाका पालन करना है । प्रभुकी आज्ञा है–इसे मार दो ।’

किंतु हमलोगोंके सामने प्रत्यक्षरूपसे प्रभु हैं नहीं तो भगवान्‌की वाणी देख लो और हृदय टटोलकर देख लो कि हम ऐसा आचरण क्या दूसरोंसे चाहते हैं । दूसरोंसे नहीं चाहते तो वैसा मत करो । साक्षात् भगवान्‌ आज्ञा दें तो न्याय-अन्यायको भी देखनेकी जिम्मेवारी हमपर नहीं रही । भगवान्‌ सामने प्रत्यक्ष नहीं हैं तो भगवान्‌की आज्ञा–गीतादि ग्रन्थ हैं । उनमें देख लो, उनके अनुसार न्याय करो, अन्याय मत करो और उनसे समझमें न आये तो घबराओ मत, किंतु भाव शुद्ध रखो, फिर समझमें आ जायगी ।

एक बाबाजी थे । कहीं जा रहे थे नौकमें बैठकर । नौकमें और भी बहुत लोग थे । संयोगसे नौका बीचमें बह गयी । ज्यों ही वह नौका जोरसे बही, मल्लाहने कहा–‘अपने-अपने इष्टको याद करो, अब नौका हमारे हाथमें नहीं रही । प्रवाह जोरसे आ रहा है और आगे भँवर पड़ता है, शायद डूब जाय । अतः प्रभुको याद करो ।’ यह सुनकर कई लोग रोने लगे, कई भगवान्‌को याद करने लगे । बाबाजी भी बैठे थे, पासमें था कमण्डलु । उन्होंने ‘जय सियाराम जय जय सियाराम, जय सियाराम जय जय सियाराम’ बोलना शुरू कर दिया और कमण्डलुसे पानी भर-भरकर नौकमें गिराने लगे । लोगोंने कहा–‘यह क्या करते हैं ?’ पर कौन सुने ! वे तो नदीसे पानी नौकमें भरते रहे और ‘जय सियाराम जय जय सियाराम’ कहते रहे । कुछ ही देरमें नौका घूमकर ठीक प्रवाहमें आ गयी, जहाँ नाविकाका वश चलता था । तब नाविकने कहा–‘अब घबरानेकी बात नहीं रही, किनारा निकट ही है ।’ यह सुनकर बाबाजी नौकासे जलको बाहर फेंकने लगे और वैसे ही ‘जय सियाराम जय जय सियाराम ......’ कहने लगे । लोग बोले–‘तुम पागल हो क्या ? ऐसे-ऐसे काम करते हो ?’ बाबाजी–‘क्या बात है भाई ?’ लोग–‘तुमको दया नहीं आती ? साधु बने हो । वेष तो तुम्हारा साधुका और काम ऐसा मूर्खके-जैसा करते हो ? लोग डूब जाते तब ?’ बाबाजी–‘दया तो तब आती जब मैं अलग होता । मैं तो साधु ही रहा, मूर्खका काम कैसे किया जाय ?’ लोग–‘जब नौका बह गयी तब तो तुम पानी नौकाके भीतर भरने लगे और जब नौका भँवरसे निकलने लगी तब पानी वापस बाहर निकालने लगे । उलटा काम करते हो ?’ बाबाजी–‘हम तो उलटा नहीं, सीधा ही करते हैं । उलटा कैसे हुआ ?’ लोग–‘सीधा कैसे हुआ ?’ बाबाजी–‘सीधा ऐसे कि हम तो पूरा जानते नहीं । मैंने समझा कि भगवान्‌को नौका डुबोनी है । उनकी ऐसी मर्जी है तो अपने भी इसमें मदद करो और जब नौका प्रवाहसे निकल गयी तो समझा कि नौका तो उन्हें डुबोनी नहीं है, तब हमें तो उनकी इच्छाके अनुसार करना है–यह सोचकर पानी नौकसे बाहर फेंकने लगे । साधु ही हो गये तब हमें हमारे जीने-मरनेसे तो मतलब नहीं है, भगवान्‌की मर्जीमें मर्जी मिलाना है । पूरी जानते हैं नहीं । पहले यह जान लेते कि भगवान्‌ खेल ही करते हैं, उन्हें नौका डुबोनी नहीं है, तो हम उसमें पानी नहीं भरते । पर उस समय मनमें यह बात समझमें नहीं आयी । हमने यही समझा था कि नौकाको डुबोनी है, यही इशारा है ।’

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘एकै साधै सब सधै’ पुस्तकसे