।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७४, सोमवार
प्राप्त तत्त्वका अनुभव




(गत ब्लॉगसे आगेका)

         जैसे सोनेको जाननेवाला मनुष्य सोना और गहना–दोनोंको ही जानता है, ऐसे ही परमात्मतत्त्वको जाननेवाला तत्त्वज्ञ महापुरुष सत्तायुक्त परमात्मा (प्राप्त) को भी जानता है और सत्तारहित संसार (प्रतीति) को भी जानता है–

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि   दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥
                                                  (गीता २/१६)

         ‘असत्‌का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्‌का अभाव विद्यमान नहीं है । तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है ।’

         असत् (प्रतीति) के दो विभाग हैं–शरीर तथा संसार । शरीरको संसारकी सेवामें समर्पित कर देना ‘कर्मयोग’ है और संसारसे सुख चाहना ‘जन्ममरणयोग’ है । सत् (प्राप्त) के भी दो विभाग हैं–आत्मा तथा परमात्मा । आत्माका अपने-आपमें स्थित हो जाना ‘ज्ञानयोग’ है और अपने-आपको परमात्माके समर्पित कर देना ‘भक्तियोग’ है । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग–तीनोंमेंसे किसी एकके भी पूर्ण होनेपर माने हुए अहम्‌का नाश हो जाता है ।

         प्रतीति करण-सापेक्ष है; और जो प्रतितिसे अतीत परमात्मतत्त्व (प्राप्त) है, वह करण-निरपेक्ष है । अतः परमात्मतत्त्वका अनुभव अभ्याससाध्य नहीं है । इनकी आवश्यकता केवल संसारके लिये है, अपने लिये नहीं ।

         अभ्याससे केवल अवस्थाका परिवर्तन तथा एक नयी अवस्थाका निर्माण होता है । अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव अभ्याससे नहीं होता, प्रत्युत अनभ्याससे होता है । अनभ्यासका अर्थ है–कुछ न करना । करनामात्र प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है । प्रकृतिके सम्बन्धके बिना चेतन कुछ कर सकता ही नहीं, करना बनता ही नहीं । अतः उसपर करनेकी जिम्मेवारी भी नहीं है । चेतनमें कर्तृत्व है ही नहीं, फिर उससे क्रिया कैसे होगी ? जब लेखक ही नहीं है, तो फिर लेखन-क्रिया कैसे होगी ? चेतन अहंकारसे मोहित होकर केवल अपनेमें कर्तृत्वकी मान्यता कर सकता है–‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३/२७) । वास्तवमें वह न कर्ता है, न भोक्ता है–‘न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/२१) । अतः तत्त्वका अनुभव करनेके लिये क्रिया और पदार्थको महत्त्व देना महान् अज्ञान है । क्रिया और पदार्थका उपयोग संसारके हितके लिये है । अपने हितके लिये तो इनसे सर्वथा असंग, उपराम होना है ।

         तत्त्वका अनुभव प्रतीतिके द्वारा नहीं होता, प्रत्युत प्रतीतिके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) से होता है । कारण कि प्रतीतिका आश्रय ही बाँधनेवाला है–‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । प्रतीतिका आश्रय, सहायता लिये बिना अभ्यास नहीं होता । जिसका आश्रय लिया जायगा, उसका त्याग कैसे होगा ? उसका तो महत्त्व ही बढ़ेगा । इसलिये तत्त्वको अभ्याससाध्य माननेसे एक बड़ी हानि यह होती है कि जिससे बन्धन होता है, उसीको मनुष्य तत्त्वप्राप्तिमें सहायक मान लेता है और उसकी महत्ता तथा आवश्यकता अनुभव करता है । अतः अभ्याससे बन्धन अथवा प्रतीतिकी पराधीनता ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है, जिसके कारण प्रतीतिका त्याग करना बड़ा कठिन होता है । जैसे, बेड़ी चाहे लोहेकी हो अथवा सोनेकी, बन्धनमें कोई फर्क नहीं पड़ता । फर्क पड़ता है तो केवल इतना ही पड़ता है कि लोहेकी बेड़ीका त्याग करना सुगम होता है, पर सोनेकी बेड़ीका त्याग करना बड़ा कठिन होता है; क्योंकि अन्तःकरणमें सोनेका महत्त्व है !

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे