(गतब्लॉगसे
आगेका)
सम्पूर्ण सृष्टि त्रिगुणात्मक है । श्रीमद्भागवतमें अहंकारको भी तीन प्रकार
का बताया गया है–सात्त्विक, राजस और तामस ।
अतः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणके जितने भी भेद सृष्टिमें पाये जाते हैं, वे सब अहंकारमें
ही हैं । जबतक व्यष्टि अहंकार रहता है, तबतक साधकोंमें और
उनके साधनोंमें भेद रहता है । परन्तु तत्त्वकी प्राप्ति होनेपर भेद नहीं रहता । जबतक
दार्शनिकोंमें और दर्शनशास्त्रका अध्ययन करनेवालोंमें किञ्चित् भी व्यष्टि अहंकार रहता
है, तबतक दर्शनोंका भेद रहता है[*]
। अहम्के कारण ही दार्शिनिकोंमें
परस्पर विरोध और अपने-अपने मतका आग्रह (पक्षपात) रहता है, जिससे वे अपने मतका मण्डन
और दूसरेके मतका खण्डन करते हैं । तात्पर्य है कि सूक्ष्म अहम् (आंशिक व्यक्तित्व)
रहनेसे ही मतभेद होता है, तत्त्वमें मतभेद नहीं है । अहम्का अत्यन्त अभाव होनेपर
भेद नहीं रहता, प्रत्युत तत्त्व रहता है । तत्त्वमें अहम्
नहीं है और अहम्में तत्त्व नहीं है । अहम्से पृथक्ता पैदा होती है । जहाँ पृथक्ता
है, वहाँ बोध कहाँ और जहाँ बोध है, वहाँ पृथक्ता कहाँ ?
‘मैं
हूँ’–इसमें ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है । जड़की मुख्यतासे संसारकी इच्छा और चेतनकी
मुख्यतासे परमात्माकी इच्छा उत्पन्न होती है । तात्पर्य है कि संसारकी इच्छामें ‘मैं’
की प्रधानता और परमात्माकी इच्छामें ‘हूँ’ की प्रधानता रहती है । ‘मैं’ (जड़) की प्रधानता होनेसे जीव संसारी होता है और ‘हूँ’ (चेतन)
की प्रधानता होनेसे जीव साधक होता है । अतः मुख्यरूपसे
तादात्म्यरूप अहंकारके दो भेद हैं–१. लौकिक अहंकार, जैसे–‘मैं संसारी हूँ’ और २. पारमार्थिक
अहंकार; जैसे–‘मैं साधक हूँ’ ।
लौकिक अहंकार
जब मनुष्यका उद्देश्य असत् भोग और संग्रहको प्राप्त करनेका हो जाता है,
तब उसमें ‘मैं संसारी हूँ’–यह लौलिक अहंकार रहता है । ऐसा अहंकार दृढ़ होनेपर मनुष्य
निरन्तर संसारी रहता है । सांसारिक कार्य करते समय तो वह संसारी रहता ही है, साधन करते
समय भी वह संसारी ही रहता है । इसीलिए वह जो भी साधन
करता है, वह कामनाको लेकर (कामनापूर्तिके लिये) ही करता है और वह साधन उसमें साधकपनका
अभिमान बढ़ानेवाला होता है । अभिमान अहंकारका ही स्थूलरूप
है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘साधन-सुधा-सिंधु’
पुस्तकसे
[*] न्याय, वैशेषिक, योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा–ये छः आस्तिक
(ईश्वरकी सत्ता माननेवाले) दर्शन हैं । न्यायदर्शन और वैशेषिक दर्शनमें भौतिकताकी
प्रधानता है । योगदर्शन और सांख्यदर्शनमें भौतिक और अध्यात्मिक दोनोंका ही वर्णन
है । पूर्वमीमांसामें स्वर्गादिकी प्राप्ति और उत्तरमीमांसा (वेदान्तदर्शन) में
ब्रह्मकी प्राप्ति मुख्य है । इन दोनों दर्शनोंको ‘मीमांसा’ कहनेका तात्पर्य है कि
इनमे अपने विचार (दर्शन अर्थात् अनुभव) की मुख्यता नहीं है, प्रत्युत वैदिक
मन्त्रोंपर विचारकी मुख्यता है । इन दोनोंमें वेदान्त-दर्शनके कई भेद हैं; जैसे–अद्वैत,
द्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद आदि ।
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