।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७४, शनिवार
अहंकार तथा उसकी निवृत्ति



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         साधनभेदसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग–ये तीन भेद भी अहंकारके कारण ही होते हैं । साधक ज्यों-ज्यों साधनमें आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों अहंकार मिटता जाता है और ज्यों-ज्यों अहंकार मिटता जाता है, त्यों-त्यों कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगका भेद भी मिटता जाता है । कर्मयोगमें अहंकारके रहते हुए भी साधन किया जा सकता है, जो कर्मयोग सिद्ध होनेपर मिट जाता है । ज्ञानयोगमें अहंकार ब्रह्मके साथ मिल जाता है । भक्तियोगमें अहंकार भगवान्‌के अर्पित हो जाता है । तात्पर्य है कि कर्मयोगमें अहम् शुद्ध होता है, ज्ञानयोगमें अहम् मिटता है और भक्तियोगमें अहम् बदलता है । अहम् का शुद्ध होना, मिटना और बदलना–ये तीनों परिणाममें एक हो जाते हैं ।

         कर्मयोग भौतिक साधना है, ज्ञानयोग आध्यात्मिक साधना है और भक्तियोग आस्तिक साधना है । भौतिक साधनामें ‘अकर्म’ की मुख्यता रहती है, आध्यात्मिक साधनामें ‘आत्मा’ की मुख्यता रहती है और आस्तिक साधनामें ‘परमात्मा’ की मुख्यता रहती है । इसलिये कर्मयोगी सम्पूर्ण कर्मोंमें एक अकर्मको देखता है–‘कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः’ (गीता ४/१८); ज्ञानयोगी सम्पूर्ण प्राणियोंमें एक आत्माको देखता है–‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि’ (गीता ६/२९); और भक्तियोगी सबमें एक परमात्माको देखता है अर्थात् अनुभव करता है–‘यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति’ (गीता ६/३०) । अकर्म, आत्मा तथा परमात्मा–तीनों तत्वसे एक ही हैं । अतः ‘अकर्म’ में आत्मा भी है और परमात्मा भी है, ‘आत्मा’ में अकर्म भी है और परमात्मा भी है तथा ‘परमात्मा’ में अकर्म भी है और आत्मा भी है । तात्पर्य है कि अहंकारके कारण अकर्म, आत्मा और परमात्मा–ये तीन भेद होते हैं । तत्वमें ये तीन भेद नहीं हैं ।

          अकर्मका अनुभव करनेसे कर्मयोगी कृतकृत्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ करना शेष नहीं रहता । आत्माका अनुभव करनेसे ज्ञानयोगी ज्ञातज्ञातव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ जानना शेष नहीं रहता । परमात्माका अनुभव करनेसे भक्तियोगी प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ पाना शेष नहीं रहता ।

          कृतकृत्य होनेसे कर्मयोगी ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य भी हो जाता है, ज्ञातज्ञातव्य होनेसे ज्ञानयोगी कृतकृत्य और प्राप्तप्राप्तव्य भी हो जाता है तथा प्राप्तप्राप्तव्य होनेसे भक्तियोगी कृतकृत्य और ज्ञातज्ञातव्य भी हो जाता है । कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य होनेसे तादात्म्यवाला अहंकार सर्वथा नष्ट हो जाता है और तत्व रह जाता है अर्थात् अनुभवमें आ जाता है । फिर साधकोंके साधनोंका भेद नहीं रहता । साधक साधन होकर साध्य हो जाता है ।

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)                 

–‘साधन-सुधा-सिंधु’ पुस्तकसे