।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७४, रविवार
अहंकार तथा उसकी निवृत्ति



(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न – हमारा स्वरूप अहम् (मैंपन) से रहित है – इसका अनुभव कैसे करें ?

उत्तरसत्तामात्र अर्थात् केवल होनापन ही हमारा स्वरूप है । इस सत्तामात्रके सिवाय और सबका अभाव है । जितना देखने, सुनने और समझनेंमें आता है तथा जिन यंत्रों (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि) से देखते, सुनते और समझते हैं एवं देखना, सुनना और समझना – ये सब-के-सब क्षणभंगुर हैं अर्थात् इनकी एक क्षण भी सत्ता (अस्तित्व) नहीं है । परन्तु स्वतःसिद्ध सत्ताका क्षणमात्र भी कभी अभाव हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं ।

        अपना जो होनापन (स्वरूप) है, उसमें ‘मैं’ नहीं है और जो ‘मैं’ है, उसमें होनापन नहीं है । जितने भी विकार हैं, सब मैंपनमें ही हैं, स्वरूपमें नहीं । सत्तारूप होनेसे स्वरूपमें स्वतः निर्लिप्तता है । इस स्वतःसिद्ध सत्ता (स्वरूप) में कभी कोई विकार हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं । मैंपनका नित्य-निरन्तर विकारी रहनेका स्वभाव है और स्वरूपका नित्य-निरन्तर निर्विकार रहनेका स्वभाव है । स्वतःसिद्ध सत्तामें न कर्तृत्व है, न भोक्तृत्व है – ‘न करोति न लिप्यते’ (गीता १३/३१);करना है, न करवाना है – ‘नैव कुर्वन्न कारयन्’ (गीता ५/१३) ।

        गीतामें भगवान् ने कहा है –

                    भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
                    अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा     
                                                             (गीता ७/४)

        ‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश – ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार – यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है ।’

        तात्पर्य है कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम् – ये सब एक ही जातिके (अपरा) हैं । अतः जिस जातिकी पृथ्वी है, उसी जातिका अहम् (मैंपन) है अर्थात् मिट्टीके ढेलेकी तरह मैंपन भी जड़ और दृश्य है । जैसे पदार्थ दृश्य हैं, ऐसे यह मैंपन भी दृश्य है अर्थात् पदार्थोंकी तरह यह मैंपन भी जाननेमें आनेवाला है । हमारा स्वरूप अहम् से अलग है – इसका लक्ष्य करानेके लिये एक बात कही जाती है ।

        सुषुप्ति (गाढ़ नींद) से जगनेपर हम कहते हैं कि मैं ऐसे सुखसे सोया कि मेरेको कुछ पता नहीं था । पता इसलिये नहीं था कि उस समय अहम् नहीं था अर्थात् अहम् अविद्यामें लीन हो गया था । परन्तु हम तो उस समय थे ही । अगर हम न होते तो ‘कुछ भी पता नहीं था’ – इसका पता किसको लगता ? जगनेके बाद कौन कहता कि मेरेको कुछ भी पता नहीं था ? पता लगानेवाला जो अहंभाव था, वह तो नहीं था, पर हम तो थे ही । जैसे, एक घरमें कोई आदमी है । बाहरसे कोई आवाज देता है कि क्या घरमें अमुक आदमी है ? तो वह घरके भीतरसे कहता है कि घरमें नहीं है, तो क्या ‘घरमें नहीं है’ – ऐसा बोलनेवाला भी नहीं है ? अगर घरमें कोई नहीं होता तो कौन कहता कि वह घरमें नहीं है ? बोलनेवाला तो है ही । इस तरह सुषुप्तिमें ‘मेरे को कुछ भी पता नहीं था’ – इसको जाननेवाला तो था ही । तात्पर्य है कि सुषुप्तिमें मैंपन तो नहीं रहता, पर अपना होनापन रहता है अर्थात् सुषुप्तिमें मैंपनसे रहित अपनी सत्ता सिद्ध होती है ।

        हम मैंपनके भाव और अभाव दोनोंको जाननेवाले हैं । मैंपनका अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता । सब संसार मिट जाय तो भी हमारी सत्ता रहती है । अतः सत्ता (होनापन) हमारा स्वरूप है । मैंपन हमारा स्वरूप नहीं है ।   

नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!

–‘साधन-सुधा-सिंधु’ पुस्तकसे