।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७४, बुधवार
कामदा एकादशी-व्रत (स्मार्त)
वैष्णव एकादशी-व्रत कल है
साधनकी मुख्य बाधा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         
         इसने हमारा सम्मान नहीं किया, इसने हमारे विरुद्ध बात कर दी, इसने हमारा घाटा लगा दिया, इसने हमारे व्यापारमें बाधा लगा दी, इसने हमारी उन्नतिमें बाधा लगा दी–यह जो दूसरेको निमित्त मानना है, यह बहुत बड़ी भूल है । इस भूलसे महान् अनर्थ होता है, अपनी तरफ दृष्टि नहीं जाती, जब कि केवल अपनी तरफ दृष्टि जानी चाहिये । हमारेमें मानकी, बड़ाईकी, सुखकी इच्छा है, इस कारणसे दुःख होता है । दूसरा दुःख दे नहीं सकता । दूसरेसे दुःख तभी होता है, जब हम भीतरसे सुख चाहते हैं । अतः दुःखके कारण हम खुद ही हुए । ऐसा जिस दिन हमने समझ लिया, उस दिनसे हमारी उन्नति शुरू हो जायगी । बिलकुल पक्‍की बात है । जबतक यह दृष्टि रहेगी कि उसने ऐसा नहीं किया, उसने ऐसा नहीं किया, तबतक कभी उन्नति नहीं होगी; क्योंकि रास्ता शुरूसे ही गलत ले लिया । गलत रस्तेपर कितना ही चलो, ठेठ (सिद्धितक) कैसे पहुँचोगे ? जो यह बात कहते हैं कि मेरा क्या दोष है इसमें, मेर दोष है ही नहीं–यही मेरा दोष है । अपने दोष नहीं दीखते–यही वास्तवमें दोषोंको स्थिर रखनेवाली चीज है–‘परो ददातिती कुबुद्धिरेषा’ । मैं अनुकूल परिस्थिति बना लेता हूँ, यह वृथाभिमान है–‘अहं करोमिति वृथाभिमानः’ । यह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति तो आती-जाती रहती है । जैसे रातके बाद दिन और दिनके बाद रात आते-जाते रहते हैं, ऐसे ही सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख आते-जाते रहते हैं । अगर हम सुखी-दुःखी होते रहेंगे तो पारमार्थिक बातसे वंचित रहेंगे । जिसको परम आनन्दकी प्राप्ति, दुःखोंकी अत्यन्त निवृत्ति कहते हैं, वह नहीं होगी । केवल सुखकी लोलुपता, सुखकी आशाका, सुखके भोगका त्याग करें तो दुःख मिट जायँगे और महान् सुख मिल जायगा ।

         आप गहरा उतरकर सोचें कि दुःख किसका नाम है ? सुखकी इच्छाका नाम ही दुःख है, और कोई दुःख है ही नहीं । दुःख नामकी कोई वस्तु नहीं है । जो सुखकी इच्छा रखता है, उसको दुःख भोगना ही पड़ेगा–‘ये ही संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते’ । सुख तो आने-जानेवाला है, पैदा होता है और समाप्त हो जाता है–‘आद्यन्तवन्तः’ (गीता ५/२२)सुख तो रहता नहीं, पर उसकी इच्छा, आशा बनी रहती है । सुखभोगके संस्कार भीतर रहते हैं । अगर सुखकी इच्छाका त्याग कर दें तो बहुत भारी लाभकी बात है । वह लाभ क्या है ?–

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                                  (गीता ६/२२)

         ‘जिस लाभकी प्राप्तिके बाद फिर दूसरा कोई लाभ माननेमें ही नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता ।’ अर्थात् उस लाभमें, उस सुखमें कभी कमी आती ही नहीं, दुःखका स्पर्श होता ही नहीं । इसलिये संयोगजन्य सुखमें लोलुपता नहीं रखनी है, उसकी आशा नहीं करनी है, उसका चिन्तन नहीं करना है, उसके लिये उद्योग नहीं करना है । हाँ, जीवन-निर्वाहके लिये उद्योग करो । पर सुखभोगका उद्देश्य रखोगे तो फँस जाओगे । इसमें कोई शंका हो तो पूछो, और बात ठीक समझमें आ गयी तो आजसे ही मान लो । सावधान हो जाओ कि संयोगजन्य सुख नहीं लेंगे । कभी इस सुखसे मोहित भी हो जायँ, राजी भी हो जायँ, तो चेत करना चाहिये कि राम.....राम.....गजब हो गया ! आज तो हम इसके वशमें हो गये ! ऐसा होते ही इसकी लोलुपता छूट जायगी; क्योंकि इसमें खुदमें ताकत नहीं है, इसके नीचे बुनियाद नहीं है, जड़ नहीं है । पारमार्थिक सुखकी बुनियाद, जड़ परमात्मा है । इसलिए यह पारमार्थिक सुख कभी मिटता नहीं ।

         जितने भी सुख हैं, वे सब-के-सब आदि-अन्तवाले हैं । अतः संसारका सुख और दुःख सदैव आपके साथ नहीं रह सकता । आपके साथ सदैव परमात्मा ही रहते हैं । वे परमात्मा दीखते नहीं । न दीखनेपर भी उनको अपना मानना है और संसारको अपना नहीं मानना है ।

         जो जंगलमें रह करके, कन्द, मूल, फल खा करके अपना जीवन बितानेवाले हैं, ऐसे-ऐसे ऋषि-मुनियोंको भी विषयासक्ति बाधा पहुँचाती है । इसलिये जो सांसारिक पदार्थोसे सुख मानते हैं, सांसारिक पदार्थोंकी गरज करते हैं, वे बड़ी भारी गलती करते हैं ।

नारयण !    नारायण !!    नारायण !!!


–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे