।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७४, शनिवार
साधनकी मुख्य बाधा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         प्रश्न–मनुष्यजीवनमें साधनका आरम्भ कब होता है ?

        उत्तर–साधनका आरम्भ होता है–संसारसे संतप्त (दुःखी) होनेपर और विचार करनेपर । जब मनुष्यको संसारसे सुख नहीं मिलता, शान्ति नहीं मिलती और जिनसे वह स्‍नेह करता है, जिनसे वह सुख लेता है अथवा सुखकी आशा रखता है, उनके द्वारा भी धक्‍का लगता है, तब वह संसारसे निराश हो जाता है । उसके भीतर उथल-पुथल मचने लगती है । ऐसी अवस्थामें उसके भीतर उस सुखको प्राप्त करनेकी इच्छा जाग्रत होती है, जो नित्य हो, अविनाशी हो, निर्विकार हो, दुःखसे रहित हो । उसका यह उद्देश्य हो जाता है कि अब मैं उस सुखको प्राप्त करूँगा, जिसमें दुःख न हो तथा जिसका कभी अन्त न हो; उस पदको प्राप्त करूँगा, जिससे कभी पतन न हो; उस वस्तुको प्राप्त करूँगा, जिसका कभी वियोग न हो । ऐसा उद्देश्य होते ही साधनका आरम्भ हो जाता है ।
  
         केवल संसारसे दुःखी होकर साधनमें लगनेवाला मनुष्य तो संसारका सुख मिलनेपर साधनसे हट भी सकता है, पर विचारपूर्वक साधनमें लगनेवाला मनुष्य साधनसे कभी हट नहीं सकता । कारण कि उसका उद्देश्य उस सुखको प्राप्त करनेका होता है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी दुःख न हो । उस अविनाशी सुखको प्राप्त किये बिना उसको किसी भी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदिमें सन्तोष नहीं होता ।
  
         जो संसारसे दुःखी तो होता है, पर उस दुःखको सांसारिक सुखके द्वारा मिटाना चाहता है, वह संसारी (भोगी) होता है, साधक नहीं हो सकता । कारण कि सांसारिक सुखमें आसक्त मनुष्यकी साधनबुद्धि हो ही नहीं सकती । सांसारिक सुखसे सांसारिक दुःख कभी मिट नहीं सकता–यह नियम है । सांसारिक सुखके पहले भी दुःख है और अन्तमें भी दुःख है; अतः मध्यमें भी दुःख ही है, चाहे दीखे या न दीखे । कारण कि जो चीज आदि और अन्तमें होती है, वह मध्यमें भी होती है–यह सिद्धान्त है । जब मनुष्य इस बातको समझ लेता है कि सांसारिक सुख वास्तवमें दुःखरूप ही है और सुखका भोगी दुःखसे कभी बच नहीं सकता, तब साधन शुरू हो जाता है ।
  
         प्रश्न–साधनका स्वरूप क्या है ?

        उत्तर–साधनका स्वरूप है–त्याग, विचार और शरणागति (पुकार) ।

         अपने सुखके लिये कुछ न करके केवल दूसरोंके सुखके लिये सम्पूर्ण क्रियाएँ करना –यह त्याग (कर्मयोग) है ।
  
बचपनसे लेकर आजतक शरीर सर्वथा बदल गया, पर मैं वही हूँ अर्थात् स्वरूप ज्यों-का-त्यों है–यह विचार (ज्ञानयोग) है ।
  
         मैं कुछ नहीं कर सकता–इस भावसे अपने बलका आश्रय छोड़कर भगवानका आश्रय ले लेना–यह शरणागति (भक्तियोग) है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)

–‘साधन-सुधा-सिंधु’ पुस्तकसे