।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण अमावस्या, वि.सं.-२०७४, रविवार
साधनकी मुख्य बाधा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         प्रश्न–साधनकी मुख्य बाधा क्या है ?

        उत्तर–साधनकी मुख्य बाधा है–संयोगजन्य सुखकी आसक्ति । यह बाधा साधनमें बहुत दूरतक रहती है । साधक जहाँ सुख लेता है, वहीं अटक जाता है[*] । यहाँतक कि वह समाधिका भी सुख लेता है तो वह अटक जाता है । सात्त्विक सुखकी आसक्ति भी बन्धनकारक हो जाती है–‘सुखसंगेन बध्नाति’ (गीता १४/६) । इसलिये भगवान्‌ने संयोगजन्य सुखकी कामनाको विवेकी साधकोंका नित्य वैरी बताया है–‘ज्ञानिनो नित्यवैरिणा’ (गीता ३/३९)

          आजकल साधकमें अपने साधनको आगे बढ़ानेकी, अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करनेकी धुन तो रहती है, पर सुखासक्तिको मिटानेकी धुन नहीं रहती । सुखासक्तिके कारण ही साधन तत्काल अर्थात् वर्तमानमें सिद्ध नहीं होता और उसमें देरी लगती है । अतः सुखासक्तिको मिटानेकी बड़ी भारी आवश्यकता है ।

          वास्तवमें भगवान्‌ भी विद्यमान है, गुरु भी विद्यमान है और अपनेमें योग्यता, सामर्थ्य भी विद्यमान है । केवल नाशवान् सुखकी आसक्तिसे ही उनके प्रकट होनेमें बाधा लग रही है । नाशवान् सुखकी आसक्ति मिटानेकी जिम्मेवारी साधकपर है; क्योंकि उसीने आसक्ति की है । इसलिये भगवान्‌ने कहा है–
उद्धरेदात्मनात्मानं      नात्मनमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
                                              (गीता ६/५)
         ‘अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।’
         प्रश्न–संयोगजन्य सुखकी आसक्ति कैसे छूटे ?

        उत्तर–सुखासक्ति छोड़नेका बढ़िया उपाय है–दूसरेके सुखसे सुखी (प्रसन्न) और दुःखसे दुःखी (करुणित) होना–‘पर दुख दुख सुख देखे पर’ (मानस ७/३८/१) । सुखी व्यक्तिको देखकर प्रसन्न होनेसे साधक उसके सुखमें सहमत हो जाता है, जिससे वह व्यक्ति सुखका अनुभव करता है । ऐसे ही दुःखी व्यक्तिको देखकर करुणित होनेसे साधक उसके दुःखमें सहमत हो जाता है, जिससे दुःखका भार अकेले उस व्यक्तिपर नहीं रहता, उसका दुःख हलका हो जाता है और वह सुखका अनुभव करता है ।
         दूसरेके सुखसे सुखी होनेपर भोगोंकी इच्छा कम हो जाती है, क्योंकि भोगोंमें जो सुख मिलता है, वह सुख साधकको दूसरोंको सुखी देखनेपर विशेषतासे मिल जाता है, जिससे सुखभोगकी आवश्यकता नहीं रहती । ऐसे ही दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेपर साधकके पास जो सुख-सामग्री, योग्यता, सामर्थ्य आदि है, वह स्वतः उसका दुःख दूर करनेमें लग जाता है, जिससे संग्रह करनेकी इच्छा कम हो जाती है । इस तरह दूसरेके सुखसे सुखी और दुःखसे दुःखी होनेपर संयोगजन्य सुख (भोग और संग्रह) की आसक्ति कम होकर मिट जाती है ।

           दूसरेके सुखसे सुखी और दुःखसे दुःखी होनेवाला साधक अपना दुःख तो प्रसन्नतापूर्वक सह लेता है, पर दूसरेका दुःख उससे सहा नहीं जाता । उसको अपने दुःखकी परवाह न होकर दूसरेके दुःखकी परवाह होती है । अगर साधकमें त्याग-वैराग्यकी प्रधानता हो तो उसको अपने शरीरका दुःख बहुत कम मालूम देता है और दूसरेसे सुख लेनेकी इच्छा नहीं होती । दूसरेसे सुख लेना  उसको सहन नहीं होता और दूसरा अपने-आप सुख दे तो उसको प्रसन्नता नहीं होती ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘साधन-सुधा-सिंधु’ पुस्तकसे




[*] भोगोंका सुख संयोगजन्य और समाधिका सुख वियोगजन्य है । संयोगजन्य सुख लेनेसे पतन हो जाता है और वियोगजन्य सुख लेनेसे साधक अटक जाता है ।