।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
साधनकी मुख्य बाधा



(गत ब्लॉगसे आगेका)
        प्रश्न–साधन आगे बढ़ रहा है–इसकी पहचान क्या है ?

     उत्तर–साधकका संसारमें जितना कम आकर्षण हो और भगवान्‌में जितना ज्यादा आकर्षण हो, उतना ही वह साधनमें आगे बढ़ रहा है । साधनमें आगे बढ़नेपर राग-द्वेष उत्तरोत्तर कम होते जाते हैं । अगर पहलेकी अपेक्षा राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि कम नहीं हुए, चित्तमें शान्ति नहीं आयी तो क्या साधन किया ?
        
प्रश्न–साधन पूर्ण (सिद्ध) होनेपर क्या होता है ?

उत्तर–साधन सिद्ध होनेपर कृतकृत्यता, ज्ञातज्ञातव्यता तथा प्राप्तप्राप्तव्यता हो जाती है अर्थात् कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता । साधकको उस परम लाभकी प्राप्ति हो जाती है, जिसकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह महान्-से-महान् दुःखसे भी कभी विचलित नहीं किया जा सकता[*]

सिद्ध होनेपर अपनेमें  अभाव तो रहता नहीं और विशेषता दीखती नहीं । जबतक साधकको अपनेमें विशेषता दीखती है, वह अपनेको सिद्ध मानता है, तबतक उसमें व्यष्टि अहंकार (व्यक्तित्व) रहता है । जबतक व्यष्टि अहंकार रहता है, तबतक परिच्छिन्नता, विषमता, जडता, अभाव, अशान्ति, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि दोष विद्यमान रहते हैं ।

प्रश्न–ऊँचे साधक और सिद्धमें क्या अन्तर होता है ?

उत्तर-साधनकी ऊँची स्थिति प्राप्त होनेपर जाग्रत्-अवस्थामें तो साधकमें जड-चेतनका विवेक अच्छी तरह रहता है, पर निन्द्रावस्थामें उसकी विस्मृति हो जाती है । अतः नींदसे जगनेपर वह साधक विवेकको पकड़ता है । परन्तु सिद्धका विवेक प्रत्येक अवस्थामें, नित्य-निरन्तर, स्वतः-स्वाभाविक रहता है । नींदसे जगनेपर उसे विवेकको पकड़ना नहीं पड़ता ।

ऊँचे साधक और सिद्धकी पहचान दूसरा व्यक्ति नहीं कर सकता; क्योंकि यह स्वसंवेद्य स्थिति है ।

प्रश्न–तत्त्वज्ञ और तत्त्वनिष्ठमें क्या अन्तर है ?

उत्तर–तत्त्वज्ञमें कुछ कोमलता रहती है और तत्त्वनिष्ठमें दृढ़ता रहती है । तत्त्वज्ञका व्यवहार जलमें खींची गयी लकीरके समान और तत्त्वनिष्ठका व्यवहार आकाशमें खींची गयी लकीरके समान होता है । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञमें तो पहलेका कुछ संस्कार (स्वभाव) रहता है, पर तत्त्वनिष्ठमें पहलेका संस्कार सर्वथा नहीं रहता, प्रत्युत उसमें अन्तःकरणसहित संसारमात्रका अत्यन्त अभाव तथा परमात्मतत्त्वका दृढ़ भाव निरन्तर ज्यों-का-त्यों स्वतः-स्वाभाविक जाग्रत् रहता है ।

तत्त्वज्ञान होनेके बाद भी तत्त्वनिष्ठा होनेमें कुछ समय लग सकता है । परन्तु उसके लिये कोई अभ्यास या उद्योग नहीं करना पड़ता, प्रत्युत समय पाकर अपने-आप निष्ठा हो जाती है । जैसे, काँटा निकालनेके बाद भी पीड़ा रह जाती है, पर वह पीड़ा समय पाकर अपने-आप मिट जाती है । आगपर पानी डालनेसे आग बुझ जाती है, पर राखमें गरमी रह जाती है । वह गरमी समय पाकर अपने-आप मिट जाती है । वृक्षकी जड़ काटनेके बाद भी उसके तनेपर लगे पत्ते हरे रहते हैं, पर वे समय पाकर अपने-आप सूख जाते हैं । नींद खुलनेके बाद भी आँखोंमें कुछ भारीपन रहता है, पर कुछ देरके बाद वह अपने-आप मिट जाता है । तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ समय पाकर अपने-आप तत्त्वनिष्ठ हो जाता है ।
 
नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!

–‘साधन-सुधा-सिंधु’ पुस्तकसे



   [*]  यं लब्ध्वा चापरं लाभं  मन्यते नाधिकं ततः ।
         यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥ (गीता ६/२२)