।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७४, बुधवार
हरियाली तीज
मृत्युके भयसे कैसे बचें ?



संसारके सम्पूर्ण दुःखोंके मूलमें सुखकी इच्छा है । बिना सुखेच्छाके कोई दुःख होता ही नहीं । ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये–इस इच्छामें ही सम्पूर्ण दुःख हैं । मृत्युके समय जो भयंकर कष्ट होता है, वह भी उसी मनुष्यको होता है, जिसमें जीनेकी इच्छा है; क्योंकि वह जीना चाहता है और मरना पड़ता है ! अगर जीनेकी इच्छा न हो तो मृत्युके समय कोई कष्ट नहीं होता, प्रत्युत जैसे बालकसे जवान और जवानसे बूढ़ा होनेपर अर्थात् बालकपन और जवानी छुटनेपर कोई कष्ट नहीं होता, ऐसे ही शरीर छुटनेपर भी कोई कष्ट नहीं होता । गीतामें आया है–

                         देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
                        तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र   न   मुह्यति ॥   (२/१३)

         ‘देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही देहान्तरकी प्राप्ति होती है । उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता ।’

        वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
   नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि
        तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
                   न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥  (२/२२)

         ‘मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है ।’

         शरीरमें अध्यास अर्थात् मैंपन और मेरापन होनेसे ही जीनेकी इच्छा और मृत्युका भय होता है । कारण कि शरीर तो नाशवान् है, पर आत्मा अमर (अविनाशी) है और इसका विनाश कोई कर ही नहीं सकता–‘विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति’ (गीता २/१७), ‘न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ (गीता २/२०)

राम मरे तो मैं मरूँ, नहिं तो मरे बलाय ।
अविनाशी का बालका, मरे न मारा जाय ॥

         शरीर प्रतिक्षण मरता है, एक क्षण भी टिकता नहीं और आत्मा नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, एक क्षण भी बदलता नहीं । अतः जीनेकी इच्छा और मृत्युका भय न हो तो शरीरको होता है और न आत्माको होता है; प्रत्युत उसको होता है, जिसने स्वयं अविनाशी होते हुए भी नाशवान् शरीरको अपना स्वरूप (मैं और मेरा) मान लिया है । शरीरको अपना मानना अविवेक है, प्रमाद है और प्रमाद ही मृत्यु है–‘प्रमादो वै मृत्युः’ (महाभारत उद्योगपर्व ४२/४)

         प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही सुख-दुःखका भोक्ता बनता है–‘पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३/२१) । पुरुष प्रकृतिमें स्थित होता है–अविवेकसे । स्वरूपको शरीर और शरीरको अपना स्वरूप मानना अविवेक है । यह अविवेक ही दुःखका कारण है । तात्पर्य है कि मनुष्य नाशवान्‌को रखना चाहता है और अविनाशीको जानना नहीं चाहता, इस कारण दुःख होता है । अगर वह नाशवान्‌को अपना स्वरूप न समझे और स्वरूपको ठीक जान जाय तो फिर दुःख नहीं होगा ।  

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)                   

–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे