।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७४, गुरुवार
नागपंचमी
मृत्युके भयसे कैसे बचें ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         शरीरमें जितना अधिक मैंपन और मेरापन होता है, मृत्युके समय उतना ही अधिक कष्ट होता है । संसारमें बहुत-से आदमी मरते रहते है, पर उनके मरनेका दुःख, कष्ट हमें नहीं होता; क्योंकि उनमें हमारा मैंपन भी नहीं है और मेरापन भी नहीं है ।

         मृत्युके समय एक पीड़ा होती है और एक दुःख होता है । पीड़ा शरीरमें और दुःख मनमें होता है । जिस मनुष्यमें वैराग्य होता है, उसको पीड़ाका अनुभव तो होता है, पर दुःख नहीं होता । हाँ, देहमें आसक्त मनुष्यको जैसी भयंकर पीड़ाका अनुभव होता है, वैसा अनुभव वैराग्यवान् मनुष्यको नहीं होता । परन्तु जिसको बोध और प्रेमकी प्राप्ति हो गयी है, उस तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त तथा भगवत्प्रेमी महापुरुषको पीड़ाका भी अनुभव नहीं होता । जैसे भगवान्‌के चरणोमें प्रेम होनेसे बालिको मृत्युके समय किसी पीड़ा या कष्टका अनुभव नहीं हुआ । जैसे हाथीके गलेमें पड़ी हुई माला टूटकर गिर जाय तो हाथीको उसका पता नहीं लगता, ऐसे ही बालिको शरीर छूटनेका पता नहीं लगा–

राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ  ते   गिरत न जानइ नाग ॥
                                                     (मानस ४/१०)

         बोध होनेपर मनुष्यको सच्चिदानन्दरूप  तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है, जिस तत्त्वमें कभी परिवर्तन हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं । प्रेमकी प्राप्ति होनेपर मनुष्यको एक विलक्षण रसका अनुभव होता है; क्योंकि प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है ।

         बोध और प्रेमकी प्राप्ति होनेपर मृत्युमें भी आनन्दका अनुभव होता है । कारण कि मृत्युके समय तत्त्वज्ञ पुरुष एक शरीरमें आबद्ध न रहकर सर्वव्यापी हो जाता है और भगवत्प्रेमी पुरुष भगवान्‌के लोकमें, भगवान्‌की सेवामें पहुँच जाता है ।

जिनका शरीरमें मैं-मेरापन नहीं मिटा है, उनको भी मृत्युमें, कष्टमें सुखका अनुभव हो सकता है; जैसे–शूरवीर सैनिकमें वीररसका स्थायीभाव ‘उत्साह’ रहनेके कारण शरीरमें पीड़ा होनेपर भी उसको दुःख नहीं होता, प्रत्युत अपने कर्तव्यका पालन करनेमें एक सुख होता है । उसमें इतना उत्साह रहता है कि सिर कट जानेपर भी वह शत्रुओंसे लड़ता रहता है । खुदीराम बोसको जब फाँसीका हुक्म हुआ था, तब अपने उद्देश्यकी सिद्धिसे हुई प्रसन्नताके कारण उसके शरीरका वजन बढ़ गया था । स्त्रीको प्रसवके समय बड़ा कष्ट होता है । परन्तु पुत्र-मोहके कारण उसको दुःख नहीं होता, प्रत्युत एक सुख होता है, जिसके आगे प्रसवकी पीड़ा भी नगण्य हो जाती है । लोभी आदमीको रुपये खर्च करते समय बड़े कष्टका अनुभव होता है ! परन्तु जिस काममें अधिक लाभ होनेकी सम्भावना रहती है; उसमें वह अपने पासके रुपये भी लगा देता है और जरूरत पड़नेपर कड़े ब्याजपर लिये गये रुपये भी लगा देता है । लाभकी आशासे रुपये लगानेमें भी उसको दुःख नहीं होता । तपस्वीलोग गर्मियोंमें पञ्चाग्नि तपते हैं तो शरीरको कष्ट होनेपर भी उनको दुःख नहीं होता, प्रत्युत तपस्याका उद्देश्य होनेसे प्रसन्नता होती है । विरक्त पुरुषके पास स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि कुछ नहीं होनेपर भी उनका अभावरूपसे अनुभव नहीं होता । अतः उसको दुःख नहीं होता, प्रत्युत सुखका अनुभव होता है । इतना ही नहीं, बड़े-बड़े धनी, राजा-महाराजा भी उसके पास जाकर सुख-शान्तिका अनुभव करते हैं । इस प्रकार जब शरीरमें मैं-मेरापन मिटनेसे पूर्व भी मृत्युमें, कष्टमें सुखका अनुभव हो सकता है, तो फिर जिनका शरीरमें मैं-मेरापन सर्वथा मिट गया है, उनको मृत्युमें दुःख होगा ही कैसे ? निर्मम-निरहंकार होनेपर दुःखका भोक्ता ही कोई नहीं रहता, फिर दुःख भोगेगा ही कौन ?

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)                   

–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे