।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
मृत्युके भयसे कैसे बचें ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)
         अगर भीतरमें कोई इच्छा न हो तो सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिसे सुख नहीं होता और अप्राप्ति तथा विनाशसे दुःख नहीं होता । इच्छा होनेसे ही सुख और दुःख–दोनों होते हैं । सुख और दुःख द्वन्द्व हैं, जिनसे मनुष्य संसारमें बँध जाता है । वास्तवमें सुख और दुःख–दोनों एक ही हैं । सुख भी वास्तवमें दुःखका ही नाम है; क्योंकि सुख-दुःखका कारण है–‘ये हि संस्पर्शजा भोग दुःखयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । अगर मनुष्यमें कोई इच्छा न हो तो वह सुख और दुःख–दोनोंसे ऊँचा उठ जाता है और आनन्दको प्राप्त कर लेता है । जैसे सूर्यमें न दिन है, न रात है, प्रत्युत नित्यप्रकाश है, ऐसे ही आनन्दमें न सुख है, न दुःख है, प्रत्युत नित्य आनन्द है । उस आनन्दका एक बार अनुभव होनेपर फिर उसका कभी अभाव नहीं होता; क्योंकि वह स्वतःसिद्ध नित्य और निर्विकार है ।

अगर सब इच्छाओंकी पूर्ति सम्भव होती तो हम जीनेकी इच्छा पूरी करनेका उद्योग करते और अगर मृत्युसे बचना सम्भव होता तो हम मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते । परन्तु यह सबका अनुभव है कि सब इच्छाएँ कभी किसीकी पूरी नहीं होतीं और उत्पन्न होनेवाला कोई भी प्राणी मृत्युसे बच नहीं सकता, फिर जीनेकी इच्छा और मृत्युसे भय करनेसे क्या लाभ ? जीनेकी इच्छा करनेसे बार-बार जन्म और मृत्यु होती रहेगी तथा जीनेकी इच्छा भी बनी रहेगी ! इसलिये जीते-जी अमर होनेके लिये इच्छाका त्याग करना आवश्यक है ।

शरीर ‘मैं’ नहीं है; क्योंकि शरीर प्रतिक्षण बदलता है, पर हम (स्वयं) वही रहते हैं । अगर हम वही न रहते तो शरीरके बदलनेका ज्ञान किसको होता ? बदलनेवालेका ज्ञान न बदलनेवालेको ही होता है । शरीर ‘मेरा’ भी नहीं है; क्योंकि इसपर हमारा आधिपत्य नहीं चलता अर्थात् इसको हम अपनी इच्छाके अनुसार रख नहीं सकते, इसमें इच्छानुसार परिवर्तन नहीं कर सकते और इसको सदा साथ नहीं रख सकते । इस प्रकार जब हम शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ नहीं मानेंगे, तब उसके जीनेकी इच्छा भी नहीं रहेगी । जीनेकी इच्छा न रहनेसे शरीर छुटनेसे पहले ही नित्यसिद्ध अमरताका अनुभव हो जायगा ।

सत्‌का भाव (सत्ता) नहीं है और सत्‌का अभाव नहीं है–‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । सत् सत् ही है और असत् असत् ही है । अतः न सत्‌का भय है, न असत्‌का भय है । अगर भय रखें तो भी शरीर मरेगा और भय न रखें तो भी शरीर मरेगा । मरेगा वही, जो मरनेवाला है; फिर नयी हानि क्या हुई ? अतः मृत्युसे भयभीत होना व्यर्थ ही है ।

नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!


–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे