।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
हरिशयनी एकादशी-व्रत (सबका)
उद्देश्यकी महत्ता




(गत ब्लॉगसे आगेका)

         हमें केवल परमात्माको प्राप्त करना है–यह उद्देश्य ऐसा है, जो अकेला पन्द्रह आना कीमत रखता है । भाव तो बदलता रहता है । कभी अच्छा भाव होता है, कभी खराव भाव होता है । कभी सात्त्विक भाव होता है, कभी राजस अथवा तामस भाव होता है । परन्तु उद्देश्य कभी नहीं बदलता । अगर बदलता है तो अभी उद्देश्य बना ही नहीं है अथवा अपने वास्तविक उद्देश्यको पहचाना ही नहीं है ।

         उद्देश्य मनुष्यकी प्रतिष्ठा है । जिसका कोई उद्देश्य नहीं है, वह वास्तवमें मनुष्य ही नहीं है । वर्तमानमें अनेक बड़े-बड़े स्कूल और कालेज हैं, जिनमें लाखों विद्यार्थी पढ़ते हैं; परन्तु विद्यार्थीको क्यों पढ़ाया जाता है ? पढ़ाई क्यों करनी चाहिये ?–इसका अभीतक कोई एक उद्देश्य नहीं बना है । यह कितने आश्चर्यकी बात है कि पढ़ाई करते हैं, पर अपने उद्देश्यको जानते ही नहीं !

         वास्तवमें उद्देश्य बनानेकी अपेक्षा उद्देश्यको पहचानना श्रेष्ठ है । यह मनुष्यशरीर हमने अपनी इच्छासे नहीं लिया है । भगवान्‌ने अपनी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही यह मनुष्यशरीर दिया है । इस उद्देश्यके कारण ही मनुष्यशरीरकी महिमा है, अन्यथा पञ्चमहाभूतोंसे बने हुए इस शरीरकी कोई महिमा नहीं है । शरीर तो मल-मूत्र बनानेकी एक फैक्ट्री है । भगवान्‌के भोग लगी हुई बढ़िया-से-बढ़िया मिठाई इस मशीनमें दे दो तो वह विष्ठा बन जायगी ! गंगाजी, यमुनाजीका महान् पवित्र जल इस फैक्टीमें दे दो तो वह मूत्र बन जायगा । जो ऐसी गन्दी-से-गन्दी चीज पैदा करनेकी मशीन है, उस शरीरकी कोई महिमा नहीं है । महिमा वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके उद्देश्यकी है । यह उद्देश्य ही वास्तवमें मनुष्यता है । अतः भगवान्‌ने जिस उद्देश्यसे जीवको मनुष्यशरीर दिया है, उस उद्देश्यको पहचानना है । तात्पर्य यह हुआ कि उद्देश्य पहले बना है, शरीर पीछे मिला है । जैसे, बद्रीनारायण जानेका उद्देश्य पहले बनता है, यात्रा पीछे होती है । अतः उद्देश्यको पहचानना है, बनाना नहीं है । उस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये भगवान्‌ने मनुष्यमात्रको योग्यता दी है, अधिकार दिया है, विवेक दिया है । अतः मनुष्यमात्र परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका अधिकारी है । धनके सब अधिकारी नहीं हैं, मान-बड़ाईके सब बराबर अधिकारी नहीं हैं, निरोगताके सब बराबर अधिकारी नहीं हैं, सौ वर्षतक जीनेके सब बराबर अधिकारी नहीं हैं; परन्तु परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके सब-के-सब बराबर अधिकारी हैं ! जो बिलकुल अपढ़ है, जिसमें न विवेक-वैराग्य है, न षट्‌सम्पत्ति है, न मुमुक्षुता है, न श्रवण-मनन-निदिध्यासन है, पर परमात्मतत्त्वको जाननेकी तीव्र जिज्ञासा है अथवा जो संसारसे ऊब गया है, जिसको संसार दुःखरूप दिखता है, वह भी परमात्मतत्त्वको जान सकता है ! इसीलिये भगवान्‌ने कहा है–‘श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्’ (गीता २/२९) ‘इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता ।’  तात्पर्य है कि पढ़ाई करके, उद्योग करके, परिश्रम करके कोई इस तत्त्वको जान जाय–यह असम्भव बात है । जैसे, करोड़पति आदमीके पास कस्तूरी नहीं मिलती; क्योंकि उसने खरीदी ही नहीं । परन्तु जंगली आदमीके पास कस्तूरी मिल जाती है; क्योंकि उसने कस्तूरीमृगसे कस्तूरी निकाल ली । ऐसे ही तत्त्वकी प्राप्ति साधारण-से-साधारण आदमीको भी (तीव्र जिज्ञासा होनेपर) बहुत सुगमतासे हो सकती है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)                  

–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे