।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७४, गुरुवार
कज्जली तृतीया
च्‍ची मनुष्यता



(गत ब्लॉगसे आगेका)

         संग्रह करना और भोग भोगना–ये दोनों परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें बाधक हैं । रुपये-पैसे मेरे पास आ जायँ, सामग्री मेरेको मिल जाय, भोग मैं भोग लूँ–यह जो भीतरकी लालसा है, यह परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं होने देती । कारण कि संग्रह करेगा तो शरीरसे ही करेगा और सुख भोगेगा तो शरीरसे ही भोगेगा । अतः इस हाड़-माँसके पुतलेमें लिप्त रहनेसे, इसकी गुलामी करनेसे चिन्मय तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी । परन्तु दूसरोंके सुखमें सुखी होनेसे भोग भोगनेकी इच्छा और दूसरोंके दुःखमें दुःखी होनेसे अपने लिये संग्रहकी इच्छा नहीं रहती ।

         दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेसे उसका दुःख दूर करनेका विचार होगा । जैसे अपना दुःख दूर करनेके लिये हम पैसे खर्च कर देते हैं, ऐसे ही दूसरेका दुःख दूर करनेके लिये हम पैसे खर्च कर देंगे । हम ज्यादा संग्रह नहीं कर सकेंगे ! अगर संग्रह ज्यादा हो भी जायगा, तो उसमें अपनापन नहीं रहेगा कि यह तो सबकी चीज है । इसीलिये भागवतमें आया है–

यावद भ्रियते जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योऽभिमन्येत   स   स्तेनो  दण्डमर्हति ॥
                                          (श्रीमद्भागवत ७/१४/८)

         जितनेसे पेट भर जाय, उतनी ही चीज मनुष्यकी है । मतलब यह है कि जितनेसे भूख मिट जाय, उतना अन्न; जितनेसे प्यास मिट जाय, उतना जल; जितनेसे शरीर निर्वाह हो जाय, उतना कपड़ा और मकान–यह अपना है । इसके सिवा अधिक अन्न है, जल है, वस्त्र है, मकान है, निर्वाहकी अधिक सामग्री है, उसको जो अपना मानता है–अपना अधिकार जमाता है, वह चोर है, उसको दण्ड मिलेगा । वह कहता है कि हम किसीसे लाये है, यह तो हमारी है । पर वह हमारी कैसे ? क्योंकि जब जन्मे, तब एक धागा साथ लाये नहीं और जब मरेंगे, तब एक कौड़ी साथ जायेगी नहीं । अतः हमारे पास जो अधिक सामग्री है, वह उसकी है, जिसके पास सामग्रीका अभाव है । जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी होता है , वह अपने सुखके लिये भोग और संग्रहकी इच्छा नहीं करता । उसमें करुणाका, दयाका भाव पैदा होता है । करुणामें जो रस है, आनन्द है, वह भोगोंमें नहीं है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)  
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे