।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
बहुलाव्रत
च्‍ची मनुष्यता



(गत ब्लॉगसे आगेका)

यह जो आप संग्रह करते हैं, इसका अर्थ है–निर्दयता, भीतरमें दया नहीं है । जहाँ दया होती है, वहाँ अपने सुखके लिये संग्रह नहीं होता । क्यों नहीं होता ? क्योंकि उसको ऐसे ही आनन्द आता है । संग्रहमें जो सुख होता है, उसमें राजसी और तामसीपना होता है । दूसरोंके सुखमें जो सुख होता है, वह सुख संग्रहमें और भोगोंमें परिणत नहीं होता । उस सुखमें बड़ा भारी आनन्द होता है ।

जिसका दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव है, वह दूसरोंको दुःखी देखकर आप सुख भोग ले–यह हो ही नहीं सकता । पड़ोसमें रहनेवालोंको अन्न न मिले और हम बढिया-बढिया भोजन बनाकर खायें–यह अच्छे हृदयवालोंसे नहीं होता । उसको भोजन अच्छा ही नहीं लगेगा । परन्तु जिसका स्वभाव दूसरोंको दुःख देनेका है, वे दूसरोंके दुःखसे क्या दुःखी होंगे ? वे तो दूसरोंका दुःख देखकर सुखी होते हैं । जो अपने सुख के लिये दूसरोंको दुःखी बना देते हैं, अपने मान के लिये दूसरोंका अपमान करते हैं, अपनी प्रशंसाके लिये दूसरों की निन्दा करते हैं, अपने पदके लिये दूसरोंको पदच्युत करते हैं, वे मनुष्य कहलाने लायक भी नहीं हैं, मनुष्य तो हैं ही नहीं । वे तो पशु हैं । पशु भी ऐसे निकम्मे कि न सिंघ है, न पूँछ है ! जिसके सिंघ और पूँछ न हों, वह भद्दा पशु होता है । उसका ढाँचा तो मनुष्यका है, पर स्वभाव पशुका है । पशु-पक्षी तो अपने पापोंका फल भोगकर शुद्ध होंते हैं, पर दूसरोंको दुःख देनेवाले नये-नये पाप करके नरकोंका रास्ता तैयार करते हैं ! रामायणमें आया है–

                बरु भल बास नरक कर ताता । दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ॥
                                                                                   (मानस ५/४६/४)

        अपने सुखसे सुखी और अपने दुःखसे दुःखी होना दुष्टता है । नरकोंमें निवास बेशक हो जाय, पर ऐसे दुष्टोंका संग विधाता न दे । नरकोंमें जितना निवास होगा, जितना नरक भोगेंगे, उतने हमारे पाप कट जायँगे और हम शुद्ध हो जायँगे । परन्तु ऐसे दुष्टोंका संग करनेसे नये-नये नरक भोगने पड़ेंगें ।

        पशु दूसरोंको दुःख देनेपर भी पापके भागी नहीं बनते; क्योंकि पाप-पुण्यका विधान मनुष्यके लिये ही है । पशु-पक्षी दुःख देते हैं तो अपने खानेके लिये देते हैं । वे खा लेंगे तो फिर आपको तंग नहीं करेंगे, कष्ट नहीं देंगे । वे अपने सुखभोगके लिये, संग्रहके लिये आपको तंग नहीं करेंगे, कष्ट नहीं देंगे । परन्तु मनुष्य लाखों-करोडों रूपये कमा लेगा, तो भी दूसरोंको दुःख देगा और दुःख देकर अपना धन बढ़ाना चाहेगा, अपना सुख बढ़ाना चाहेगा । अतः वह मनुष्य कहलानेलायक नहीं है । वह तो पशुओंसे और नरकोंके कीड़ोंसे भी नीचा है ! मनुष्यजीवन मिला है शुद्ध होनेके लिये, निर्मल होनेके लिये । परन्तु जो दूसरोंको दुःख देते हैं, वे पाप कमाते हैं, जिसका नतीजा बहुत भयंकर होगा !

        जिसके अन्तःकरणमें दूसरोंको सुखी देखकर प्रसन्नता पैदा नहीं होती और दूसरोंको दुःखी देखकर करुणा पैदा नहीं होती, उसका अन्तःकरण मैला होता है । मैला अन्तःकरण नरकोंमें ले जाता है । पशुका अन्तःकरण ऐसा मैला नहीं होता । पशु भोगयोनी है, कर्मयोनी नहीं है । वह अपने सुखके लिये दूसरोंको दुःख नहीं देता । वह किसी प्राणीको मारकर खा जाता है तो केवल आहार करता है, सुख नहीं भोगता । परन्तु मनुष्य शौकसे अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर खाता है । उसमें स्वादका सुख लेता है तो वह पाप करता है । अतः दूसरोंके सुखसे सुखी होना और दूसरोंके दुःखसे दुःखी होना ही सच्ची मनुष्यता है । मनुष्यमात्रको अपने भीतर हरदम यह भाव रखना चाहिये कि सब सुखी कैसे हों ? उनका दुःख कैसे मिटे ?

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे