।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
      श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी (वैष्णव), स्वतन्त्रता दिवस
        संयोगमें वियोगका अनुभव


·    जबतक मनुष्य स्वयं (स्वरूपसे) भगवान्‌के आश्रित नहीं हो जाता, तबतक उसकी पराधीनता मिटती नहीं और वह दुःख पाता ही रहता है ।

·    कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य पराधीन हो जाता है । कामनाकी पूर्ति न होनेपर मनुष्य वस्तुके अभावके कारण पराधीनता अनुभव करता है और कामनाकी पूर्ति होनेपर अर्थात् वस्तुके मिलनेपर वह उस वस्तुके पराधीन हो जाता है; लेकिन वस्तुके मिलनेपर परतन्त्रताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत उसमें मनुष्यको स्वतन्त्रता दीखती है–यह उसको धोखा होता है ।


·    संयोगजन्य सुखकी इच्छासे ही यह पराधीनता भोगता रहता है और ऐसा मानता रहता है कि यह पराधीनता छूटती नहीं, इसको छोड़ना बड़ा कठिन है ।

·    भगवान्‌के शरण होनेसे वह परम स्वाधीन हो जाता है । भगवान्‌की अधीनता परम स्वाधीनता है, जिसमें भगवान्‌ भी भक्तके अधीन हो जाते हैं ।


·    जो किसी चीजको अपनी मान लेता है, वह उस चीजका गुलाम बन जाता है और वह चीज उसका मालिक बन जाती है ।

·    किसी बातको लेकर अपनेमें कुछ विशेषता दीखती है, यही वास्तवमें पराधीनता है ।


·    स्वाधीन किसे कहते हैं ? जिसे अपने लिये कुछ न चाहिए, जिसके पास अपना करके कुछ न हो ।

·    जिस व्यक्तिको अपनी प्रसन्नताके लिये दूसरोंकी ओर देखना नहीं पड़ता, उसीका जीवन स्वाधीन जीवन है ।


·    यदि हमारेमें किसी प्रकारका दासत्व न होता, तो हम किसीको भी परतन्त्र करनेका प्रयत्न न करते । जो स्वयं स्वतन्त्र है, वह किसीको परतन्त्र नहीं करता ।

·      स्वाधीनता एकमात्र सहज निवृत्ति तथा शरणागतिमें ही है ।


·    मानव दूसरोंके मनकी बात पूरी करनेमें जितना स्वाधीन है, उतना अपने मनकी बात दूसरों द्वारा पूरी करानेमें स्वाधीन नहीं है ।


नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!