।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.-२०७४, सोमवार
रक्षाबन्धन
मनकी चंचलता कैसे मिटे ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रीमधुसुदानाचार्यके ‘भक्तिरसायन’ ग्रन्थमें आया है

कामक्रोधभयस्नेहहर्षशोकदयाऽऽदयः          ।
तापकाश्चित्तजतुनस्तच्छान्तौ कठिनं तु तत् ॥
                                             (१ । ५)

‘काम, क्रोध, भय, स्रेह, हर्ष, शोक, दया आदि भाव चित्तरूपी लाखको तपाकर द्रवित करनेवाले है । भावरूपी उष्णताके शान्त होनेपर चित्तरूपी लाख ज्यों-की-त्यों कठोर हो जाती है ।’

लाख कठोर होती है, पर तापक द्रव्य मिल जाय तो वह पिघल जाती है । मोम भी थोड़ा-सा ताप लगनेपर पिघल जाता है । यदि उसके ऊपर रंग लगाकर दबायें तो उसपर थोड़ा-सा रंग बैठ जाता है, पर नखसे उतारनेपर वह रंग उतर जाता है । अगर एक कटोरीमें मोम डालकर उसको आगपर रख दें और उसमें रंग डाल दें तो वह रंग मोममें एकदम मिल जाता है । मोम ठण्डा होनेपर भी वही रंग दीखता है । ऐसे ही जिन भोगोंको भोगनेमें, जिन घटनाओंमें हमारा चित्त ज्यादा पिघला है, हम उसमें ज्यादा तल्लीन हुए हैं, उनका रंग हमारे मनमें बैठा हुआ है । अतः उनकी याद ज्यादा आती है । भूतकालमें हमने जो भोग भोगा है, वह अब बिलकुल नहीं है; परन्तु वह पिघले हुए चित्तमें बैठ गया है, इसलिये वह बड़ी तेजीसे आता है । रागपूर्वक, आसक्तिपूर्वक भोगा गया भोग कई वर्ष बीतनेपर भी ज्यों-का-त्यों दीखता है । ज्यों-का-त्यों दीखनेपर भी वह भूतकालमें ही है, अभी तो वह है ही नहीं ! यह उसको हटानेकी बहुत बढ़िया युक्ति है ! इसलिये आप इसका अनुभव करें कि वह अभी नहीं है । यह बिलकुल शंकारहित, पक्की बात है कि वह घटना अभी नहीं है, वह वस्तु अभी नहीं है, वह क्रिया अभी नहीं है, वह संग अभी नहीं है । हम उस घटना आदिको मिटाना चाहते है, चित्तको ठीक करना चाहते है । परन्तु उस घटना आदिको मिटानेसे वह नहीं मिटेगी । चित्तको ठीक करनेसे वह ठीक नहीं होगा । उसको मिटानेकी, ठीक करनेकी चेष्टा करना तो उसको सत्ता देकर दृढ़ करना है । वास्तवमें वह अभी है ही नहीं । जब वह है ही नहीं, तो फिर चंचलता क्या रही ? आश्चर्यकी बात है कि जो नहीं है, उसीसे हम दुःखी हो रहे है ! जिसका अभाव है, उसीसे हम भयभीत हो रहे है !

काम, क्रोध, भय, स्नेह, हर्ष, शोक और दयाये सात बातें है, जिनसे चित्त पिघलता है (इन सबमें मुख्य राग-द्वेष हैं) । कामनासे कोई भोग भोगते हैं तो कामना जितनी तेज होती है, उतना ही चित्त ज्यादा पिघलता है और उतना ही वह ज्यादा याद आता है । क्रोध तेजीका आता है तो चित्त ज्यादा पिघलता है । कभी किसी कारणसे जोरसे भय लगता है तो वह भी भीतर बैठ जाता है, जल्दी निकलता नहीं । ऐसे ही किसीसे ज्यादा स्नेह होता है तो चित्त पिघल जाता है । मित्रके मिलनेसे बड़ा हर्ष होता है तो इससे चित्त पिघलता है । कोई मर जाता है और उसका बहुत ज्यादा शोक होता है तो वह चित्तमें बैठ जाता है । थोड़ा शोक हो तो थोड़ा बैठता है । किसीको देखकर दया आ जाती है तो वह भी चित्तमें बैठ जाती है । परन्तु ‘अभी वह नहीं है’‒यह बिलकुल पक्की बात है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे