।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
मनकी चंचलता कैसे मिटे ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

कुत्तेके शरीरमें कहीं घाव हो जाय तो वह उसको जीभसे चाटता है । उसकी जीभकी लारमें एक शक्ति होती है, जिससे वह घाव मिट जाता है । परन्तु बन्दरके शरीरमें घाव हो जाय तो वह उसको बार-बार कुरेदता है, जिससे वह घाव मिटता नहीं । ऐसे ही दो तरहकी बात है–चाटना और कुरेदना । अभी नहीं है–यह चाटना है और बार-बार याद करना और उसको मिटानेके लिये बार-बार चेष्टा करना कुरेदना है । जैसे, किसीका लड़का मर जाय तो वह उसको बार-बार याद करता है कि वह बड़ा अच्छा था, मर गया ! उसको याद नहीं आये तो लोग आकर याद करा देते हैं ! स्त्रियाँ प्रायः याद करा देती हैं । वे आती हैं और कहती हैं कि छोरा गोदीमें ऐसे आता था, इस तरहसे चिपक जाता था ! वह ऐसा था, ऐसा उसका रूप था, ऐसी उसकी चंचलता थी ! इन बातोंसे घाव गीला हो जाता है, घाव बढ़ जाता है, शोक बढ़ जाता है और लड़केकी याद ज्यादा आती है । ऐसे ही काम, क्रोध, भय आदिकी बात याद करना घावको बढ़ानेकी रीति है । उसको चाटकर साफ कर दें कि कितना ही काम, क्रोध, लोभ हुआ, मोह, आसक्ति हुई, कैसा ही भोग भोगा, वह वास्तवमें उस समय भी नहीं था, अब तो है ही नहीं–‘नासतो विद्यते भावः’जिन व्यक्तियोंमें हमारा स्नेह था, मोह था, मित्रता थी, वे मर गये अथवा अलग हो गये । वे कहीं रहते हैं, हम कहीं रहते हैं । अभी न वे व्यक्ति हैं, न वह देश है, न वह समय है, न वह अवस्था है, न वह परिस्थिति है । उसका जितनी दृढ़तासे अभाव मान सकें, मान लें और उसकी उपेक्षा कर दें । न उससे राग करें, न द्वेष करें, प्रत्युत तटस्थ हो जायँ ।

        प्रश्न–भूतकाल और भविष्यकाल तो अभी नहीं है, पर वर्तमानकाल तो अभी है ही ?

        उत्तर–वास्तवमें वर्तमानकाल है ही नहीं । भूत और भविष्यकालकी सन्धिको ही वर्तमानकाल कह देते हैं । पाणिनिव्याकरणका एक सूत्र है–‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (३/३/१३१) अर्थात् वर्तमानसामीप्य भी वर्तमानकी तरह होता है । जैसे, भूतकालको लेकर कहते हैं कि ‘मैं अभी आया हूँ’ और भविष्यकालको लेकर कहते हैं कि ‘मैं अभी जा रहा हूँ–यह वर्तमानसामीप्य है । वास्तवमें वर्तमानसामीप्यको ही वर्तमानकाल कह देते हैं । अगर वर्तमानकाल वास्तवमें होता तो वह कभी भूतकालमें परिणत नहीं होता ।

वास्तवमें देश, काल आदि वर्तमान नहीं हैं, प्रत्युत तत्त्व (सत्ता) ही वर्तमान है । तात्पर्य है कि जो प्रतिक्षण बदलता है, वह वर्तमान नहीं है, प्रत्युत जो कभी बदलता नहीं, वही वर्तमान है । वह तत्त्व भूत, भविष्य और वर्तमान–सबमें सदा वर्तमान है, पर उस तत्त्वमें न भूत है, न भविष्य है और न वर्तमान है । कालमें तो सत्ता है, पर सत्तामें काल नहीं है । सत्ता कालसे अतीत है ।

         वर्तमान (सत्ता, स्वरूप) सबका सदा ही निर्दोष और शान्त है । अतः भूत, भविष्य और वर्तमान–तीनों कालोंको छोड़कर उसी निर्दोष और शान्त सत्तामें स्थित होना है अर्थात् उसमें अपनी स्वतः-सिद्ध स्थितिका अनुभव करना है । अनुभव होनेपर न मन रहेगा, न मनकी चंचलता रहेगी, प्रत्युत सत्तामात्र रहेगी ।

नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!

–‘वासुदेवः सर्वम्’ पुस्तकसे