।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७४, बुधवार
च्‍ची मनुष्यता



अपने सुखसे सुखी होना और अपने दुःखसे दुःखी होना–यह पशुता है; तथा दूसरेके सुखसे सुखी होना और दूसरेके दुःखसे दुःखी होना–यह मनुष्यता है । अतः जबतक दूसरेके सुखसे सुखी होने और दूसरेके दुखसे दुःखी होनेका स्वभाव नहीं बन जाता, तबतक वह मनुष्य कहलानेके लायक नहीं है । वह आकृतिसे चाहे मनुष्य दीखे, पर वास्तवमें मनुष्य नहीं है । जबतक खुदके सुखसे सुखी होंगे और खुदके दुःखसे दुःखी होंगे, तबतक मनुष्यता नहीं आयेगी ।

         जो अपने सुखके लिये दूसरोंकी हानि करता है, वह मनुष्य कहलानेलायक नहीं है । मनुष्य वही होता है, जो अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरेका हित करे, कम-से-कम दूसरेका नुकसान न करे । अतः यह शिक्षा ग्रहण करनी है कि हमारे द्वारा किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो । दूसरोंका दुःख कैसे मिटे–इससे भी आगे दूसरोंके हितकी दृष्टि रखो कि दूसरोंका हित कैसे हो ? प्राणिमात्रके हितमें रति हो–‘सर्वभूतहिते रताः’ (गीता ५/१५; १२/४) । दूसरोंका हित कितना करना है, कितना नहीं करना है–इसकी आवश्यकता ही नहीं । हमारे पास जितनी सामर्थ्य है, जितनी योग्यता है, जितनी सामग्री है, उसीको दूसरोंके हितमें लगाना है, उतनी ही हमारी जिम्मेवारी है । सबको सुखी बना दे–यह किसी मनुष्यकी ताकत नहीं है । यह इतनी कठिन बात है कि दुनियाके सब-के-सब आदमी मिलकर अगर एक आदमीको भी सुख पहुँचानेकी चेष्टा करें, तो भी उसको सुखी नहीं कर सकते । कारण कि उसमें जो धनकी, भोगोंकी, मानकी, बड़ाईकी, आरामकी लालसा है, वह ज्यों-ज्यों धन, भोग आदि मिलेंगे, त्यों-ही-त्यों अधिक बढ़ती जायगी–‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ।’ अधिक-से-अधिक धन आदि मिलनेपर भी वह तृप्त नहीं हो सकता । जब सम्पूर्ण दुनिया मिलकर भी एक आदमीको सुखी नहीं कर सकती, तो एक आदमी दुनियाके दुःखको दूर कैसे करेगा ? परन्तु ‘दूसरेको सुख कैसे हो’–यह भाव सब बना सकते हैं, चाहे वह भाई हो या बहन हो, बालक हो या जवान हो, धनी हो या निर्धन हो । सांसारिक चीजोंमें किसीको अधिकार मिला है, किसीको नहीं मिला है; परन्तु हृदयसे सबका हित चाहनेका अधिकार सबको मिला है । इस अधिकारसे कोई भी वंचित नहीं है ।

         जो अपनी शक्तिके अनुसार दूसरोंका भला करता है, उसका भला भगवान्‌ अपनी शक्तिके अनुसार करते हैं । वह अपनी पूरी शक्ति लगा देता है, तो भगवान्‌ भी अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं । जब भगवान्‌ अपनी शक्ति लगा देंगे, तो वह दुःखी कैसे रहेगा ? उसको कोई दुःखी कर ही नहीं सकता । वह भगवान्‌को प्राप्त हो जाता है–‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।’ (गीता १२/४)

सर्वे  भवन्तु  सुखिनः    सर्वे  सन्तु  निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ॥

         सब सुखी हो जायँ, सबके आनन्द-मंगल हो, कभी किसीको किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो–यह जिसका भाव बन जाय, वही मनुष्य कहलानेलायक है । जबतक वह दूसरेके दुःखसे दुःखी नहीं होता, तबतक वह मनुष्य कहलानेलायक नहीं है । दूसरी एक बात है–जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी होता है, उसको अपने दुःखसे दुःखी नहीं होना पड़ता । आपलोग ध्यान दें, अपने दुःखसे दुःखी उसीको होना पड़ता है, जो दूसरोंके दुःखसे दुःखी नहीं होता और दूसरोंके सुखसे सुखी नहीं होता । वही संग्रही बनता है और अपने सुखका भोगी बनता है । उसको सुखका अभाव रहता है, कमी रहती है । परन्तु जो दूसरोंके सुखसे सुखी होता है, उसको सुखकी कमी रहती ही नहीं । कमी कैसे नहीं रहती ? कि उसको अपने सुखभोगकी इच्छा ही नहीं रहती ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)  
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे