।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०७४, सोमवार
                   एकादशी-व्रत कल है
            भगवत्प्राप्तिके लिये  
          भविष्यकी अपेक्षा नहीं



(शेष आगेके ब्लॉगमें)

किसी योग्यताके बदलेमें भगवान् मिलेंगे, यह बिलकुल गलत धारणा है । यह सिद्धान्त है कि किसी मूल्यके बदलेमें जो वस्तु प्राप्त होती है, वह वस्तुतः उस मूल्यसे कम मूल्यकी ही होती है । यदि दूकानदार किसी वस्तुको सौ रुपयेमें बेचता है तो निश्चय ही दूकानदारने उस वस्तुको सौ रुपयेसे कम मूल्यमें खरीदा होगा । इसी प्रकार यदि हम ऐसा मानते हैं कि विशेष योग्यता अथवा साधन, यज्ञ-दानादि बड़े-बड़े कर्मोंसे भगवान् मिलते हैं तो भगवान् उनसे कम मूल्यके ही हुए ! परन्तु भगवान् किसीसे कम मूल्यके नहीं है[*] इसलिये वे किसी साधन-सम्पत्तिसे खरीदे नहीं जा सकते[†] । यदि किसी मूल्यके बदलेमें भगवान् मिलते हैं तो ऐसे भगवान् मिलकर भी हमें क्या निहाल करेंगे ? क्योंकि उनसे बढ़िया (अधिक मूल्यकी) वस्तुएँ, योग्यता, तप-दानादि तो हमारे पास पहलेसे ही हैं !

हम जैसा चाहते हैं, वैसे ही भगवान् हमें मिलते हैं । दो भक्त थे । एक भगवान् श्रीरामका भक्त था, दूसरा भगवान् श्रीकृष्णका । दोनों अपने-अपने भगवान् (इष्टदेव)-को श्रेष्ठ बतलाते थे । एक बार वे जंगलमें गये । वहाँ दोनों भक्त अपने-अपने भगवान्‌को पुकारने लगे । उनका भाव यह था कि दोनोंमेंसे जो भगवान् शीघ्र आ जायँ वही श्रेष्ठ हैं । भगवान् श्रीकृष्ण शीघ्र प्रकट हो गये । इससे उनके भक्तने उन्हें श्रेष्ठ बतला दिया । थोड़ी देरमें भगवान् श्रीराम भी प्रकट हो गये । इसपर उनके भक्तने कहा कि आपने मुझे हरा दिया; भगवान् श्रीकृष्ण तो पहले आ गये, पर आप देरसे आये, जिससे मेरा अपमान हो गया ! भगवान् श्रीरामने अपने भक्तसे पूछा‒‘तूने मुझे किस रूपमें याद किया था ? भक्त बोला‒‘राजाधिराजके रूपमें ।’ तब भगवान् श्रीराम बोले‒‘बिना सवारीके राजाधिराज कैसे आ जायँगे । पहले सवारी तैयार होगी, तभी तो वे आयँगे !’ कृष्ण-भक्तसे पूछा गया तो उसने कहा‒‘मैंने तो अपने भगवान्‌को गाय चरानेवालेके रूपमें याद किया था कि वे यहीं जंगलमें गाय चराते होंगे ।’ इसीलिये वे पुकारते ही तुरन्त प्रकट हो गये ।

दुःशासनके द्वारा भरी सभामें चीर खींचे जानेके कारण द्रौपदीने ‘द्वारकावासिन् कृष्ण’ कहकर भगवान्‌को पुकारा, तो भगवान्‌के आनेमें थोड़ी देर लगी । इसपर भगवान्‌ने द्रौपदीसे कहा कि तूने मुझे ‘द्वारकावासिन्’ (द्वारकामें रहनेवाले) कहकर पुकारा, इसलिये मुझे द्वारका जाकर फिर वहाँसे आना पड़ा । यदि तू कहती कि यहींसे आ जाओ तो मैं यहींसे प्रकट हो जाता ।



   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे



[*] अर्जुन भगवान्‌से कहते हैं‒

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥
                                                                                     (गीता ११ । ४३)

‘हे अनन्त प्रभावशाली भगवन् ! इस त्रिलोकीमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर आपसे अधिक तो हो ही कैसे सकता है ?

[†] भगवान् कहते हैं‒
नाहं वेदैर्न तपसा  न  दानेन  न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो दष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥
                                                                       (गीता ११ । ५३)


‘हे अर्जुन ! जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकारका चतुर्भुज रूपवाला मैं न वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ ।’