।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७४,मंगलवार
             उत्पन्ना एकादशी-व्रत (सबका)              भगवत्प्राप्तिके लिये  
          भविष्यकी अपेक्षा नहीं



(शेष आगेके ब्लॉगमें)

भगवान् सब जगह हैं । जहाँ हम हैं, वहीं भगवान् भी हैं । भक्त जहाँसे भगवान्‌को बुलाता है, वहींसे भगवान् आते हैं । भक्तकी भावनाके अनुसार ही भगवान् प्रकट होते हैं‒

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती ।
प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती ॥

٭ ٭ ٭      ٭ ٭ ٭       ٭ ٭ ٭

हरि   व्यापक    सर्वत्र  समाना ।
प्रेम  तें  प्रगट  होहिं  मैं  जाना ॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं ।
कहहु सो  कहाँ जहाँ  प्रभु नाहीं ॥
                                 (मानस १ । १८५ । २-३)

जब भगवान् श्रीकृष्ण गोपियोंके बीचसे अन्तर्धान हो गये तो गोपियाँ पुकारने लगीं‒

दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥
           (श्रीमद्भागवत १० । ३१ । १)

‘हे प्रिय ! तुममें अपने प्राण समर्पित कर चुकनेवाली हम सब तुम्हारी प्रिय गोपियाँ तुम्हें सब ओर ढूँढ रही हैं, अतएव अब तुम तुरन्त दिख जाओ ।’

गोपियोंकी पुकार सुनकर भगवान् उनके बीचमें ही प्रकट हो गये‒

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥
                                   (श्रीमद्भागवत १० । ३२ । २)

‘ठीक उसी समय उनके बीचोबीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये । उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिला हुआ था, गलेमें वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे । उनका यह रूप क्या था, सबके मनको मथ डालनेवाले कामदेवके मनको भी मथनेवाला था ।’

इस प्रकार गोपियोंने ‘प्यारे ! दिख जाओ’ (दयित दृश्यताम्)‒ऐसा कहा तो भगवान् वहीं दिख गये । यदि वे कहतीं कि कहींसे आ जाओ, तो भगवान् वहींसे आते ।

भगवान्‌की प्राप्ति साधनके द्वारा होती है‒यह बात भी यद्यपि सच्ची है, परन्तु इस बातको मानकर चलनेसे साधकको भगवत्प्राप्ति देरसे होती है । यदि साधकका ऐसा भाव हो जाय कि मुझे तो भगवान् अभी मिलेंगे, तो उसे भगवान् अभी ही मिल जायँगे । वे यह नहीं देखेंगे कि भक्त कैसा है, कैसा नहीं है ? काँटोंवाले वृक्ष हों, घास हो, खेती हो, पहाड़ हो, रेगिस्तान हो या समुद्र हो; वर्षा सबपर समानरूपसे बरसती है । वर्षा यह नहीं देखती कि कहाँ पानीकी आवश्यकता है और कहाँ नहीं ? इसी प्रकार जब भगवान् कृपा करते हैं तो यह नहीं देखते कि यह पापी है या पुण्यात्मा ? अच्छा है या बुरा ? वे सब जगह बरस जाते अर्थात् प्रकट हो जाते हैं[*]



 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे



[*] आदि शंकराचार्यजीने कहा हैं‒

अयमुत्तमोऽयमधमो जात्या रूपेण सम्पदा वयसा ।
श्लाध्योऽश्लाध्यो वेत्थं न वेत्ति भगवाननुग्रहावसरे ॥
अन्तःस्वभावभोक्ता    ततोऽन्तरात्मा   महामेघः ।
खदिश्चम्पक  इव  वा  प्रवर्षण  किं  विचारयति ॥
                                                                     (प्रबोधसुधाकर २५२-२५३)

‘किसीपर कृपा करते समय भगवान् ऐसा विचार नहीं करते कि यह जाति, रूप, धन और आयुसे उत्तम है या अधम ? स्तुत्य है या निन्द्य ? यह अन्तरात्मा (श्रीकृष्ण)-रूप महामेघ आन्तरिक भावोंका ही भोक्ता है । मेघ क्या वर्षाके समय इस बातका विचार करता है कि यह खैर है अथवा चम्पा ?