।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७४, शनिवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

संसारमें मान-बड़ाई, वाह-वाह अच्छा लगता है, पर परिणाममें धोखा होगा ! संसारमें हमें जो प्रिय लगते हैं, वे सब हमें रुलानेवाले हैं‘प्रियं रोत्स्यति’ (बृहदारण्यक १ । ४ । ८) यह सब रोनेकी सामग्री है ! संसार सेवा करनेलायक है । यह सुख लेनेलायक बिच्छल नहीं है.....बिच्छल नहीं है.....बिस्कुल नहीं है !! संसारसे, वाह-वाहसे, मान-बडाईसे, आदर-सत्कारसे पतन होगा । पर यह बात जल्दी समझमें नहीं आती !

श्रोताभेदभक्ति और अभेदभक्ति क्या है ?

स्वामीजीवास्तवमें असली भक्ति अभेदभक्ति है । भगवान्को दूर समझना, अपनेको अलग समझना भेदभक्ति है ।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं  सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
                                       (श्रीमद्भा ७ । ५ । २३)

‘भगवान्के गुण-लीला-नाम आदिका श्रवण, उनका कीर्तन, उनके रूप-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन तथा उनमें दासभाव, सखाभाव और आत्मसमर्पणयह नौ प्रकारकी भक्ति है ।’

इस नवधा भक्तिमें तीन त्रिक हैंश्रवण-कीर्तन-स्मरण, अर्चन-वन्दन-पादसेवन और दास्य-सख्य- आत्मनिवेदन । तीनों उत्तरोत्तर भगवान्के नजदीक हैं । ग्रन्थोंमें आया है

द्वैतं मोहाय बोधात्पाग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं  कल्पितं  द्वैतमद्वैतादपि  सुन्दरम् ॥
                                      (बोधसार, भक्ति ४२)

‘बोधसे पहलेका द्वैत मोहमें डाल सकता है; परन्तु बोध हो जानेपर भक्तिके लिये कल्पित (स्वीकृत) द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर (सरस) होता है ।’

मुक्तिके बाद अद्वैतभक्ति होती है । मुक्तिसे पहलेका द्वैत अपना किया हुआ है, और मुक्तिके बादका द्वैत भगवान्का किया हुआ है । पहले द्वैतके बाद अद्वैत है, फिर अद्वैतके बाद द्वैत है । भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीजी अद्वैतरूपसे हैं । वह (मुक्तिके बाद) प्रेमाभक्ति है, जो भगवान् अपनी तरफसे देते हैं । वह प्रेम अपने प्रेमसे विलक्षण है । वह अद्वैतभक्ति है । भागवतके एकादश स्कन्धमें एकनाथजीने अभेदभक्ति माना है । भगवान्में प्रेमकी भूख है । वह भूख मिटती नहीं है । इसलिये वह (भगवान्की तरफसे आया) प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है । उसीको ‘रास’ कहते हैं । भगवान्को देखकर श्रीजी प्रसन्न होती हैं और श्रीजीको देखकर भगवान् प्रसन्न होते हैं ।


नवधा भक्ति साधनभक्ति है । इस साधनभक्तिसे साध्यभक्ति पैदा होती है‘भक्त्या सञ्जातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा ११ । ३ । ३१) साध्यभक्ति अद्वैत होती है । यह प्रेमाभक्ति है, जो तत्त्वज्ञानसे भी विशेष है । शरणागत भक्त अपने-आपको भगवान्के समर्पित कर देता है, अपने-आपको मिटा देता है । केवल भगवान् ही रह जाते हैं । फिर भगवान्की तरफसे प्रेम होता है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे