(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारमें मान-बड़ाई, वाह-वाह अच्छा लगता है, पर परिणाममें धोखा होगा !
संसारमें हमें जो प्रिय लगते हैं, वे सब हमें रुलानेवाले
हैं‒‘प्रियं रोत्स्यति’ (बृहदारण्यक॰ १ । ४ । ८) । यह सब रोनेकी सामग्री है ! संसार सेवा करनेलायक है । यह सुख लेनेलायक बिच्छल नहीं है.....बिच्छल नहीं है.....बिस्कुल
नहीं है !! संसारसे, वाह-वाहसे, मान-बडाईसे, आदर-सत्कारसे पतन होगा । पर यह बात जल्दी समझमें नहीं
आती !
श्रोता‒भेदभक्ति और अभेदभक्ति क्या
है ?
स्वामीजी‒वास्तवमें असली भक्ति अभेदभक्ति है
। भगवान्को दूर समझना,
अपनेको अलग समझना भेदभक्ति है ।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं
पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(श्रीमद्भा॰ ७ । ५ । २३)
‘भगवान्के गुण-लीला-नाम आदिका श्रवण, उनका कीर्तन,
उनके रूप-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा,
वन्दन तथा उनमें दासभाव, सखाभाव और आत्मसमर्पण‒यह नौ प्रकारकी भक्ति है ।’
इस नवधा भक्तिमें तीन त्रिक हैं‒श्रवण-कीर्तन-स्मरण, अर्चन-वन्दन-पादसेवन और दास्य-सख्य-
आत्मनिवेदन । तीनों उत्तरोत्तर भगवान्के नजदीक
हैं । ग्रन्थोंमें आया है‒
द्वैतं मोहाय बोधात्पाग्जाते
बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
(बोधसार,
भक्ति॰ ४२)
‘बोधसे पहलेका द्वैत मोहमें डाल सकता
है; परन्तु
बोध हो जानेपर भक्तिके लिये कल्पित (स्वीकृत) द्वैत अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर (सरस) होता है ।’
मुक्तिके बाद अद्वैतभक्ति होती है । मुक्तिसे पहलेका द्वैत
अपना किया हुआ है, और मुक्तिके बादका द्वैत भगवान्का किया
हुआ है । पहले द्वैतके बाद अद्वैत है, फिर अद्वैतके बाद द्वैत
है । भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीजी अद्वैतरूपसे हैं । वह (मुक्तिके
बाद) प्रेमाभक्ति है, जो भगवान् अपनी तरफसे
देते हैं । वह प्रेम अपने प्रेमसे विलक्षण है । वह अद्वैतभक्ति है । भागवतके एकादश
स्कन्धमें एकनाथजीने अभेदभक्ति माना है । भगवान्में प्रेमकी
भूख है । वह भूख मिटती नहीं है । इसलिये वह (भगवान्की तरफसे आया) प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है । उसीको ‘रास’
कहते हैं । भगवान्को देखकर श्रीजी प्रसन्न होती हैं और श्रीजीको
देखकर भगवान् प्रसन्न होते हैं ।
नवधा भक्ति साधनभक्ति है । इस साधनभक्तिसे साध्यभक्ति
पैदा होती है‒‘भक्त्या सञ्जातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा॰ ११ । ३ । ३१) । साध्यभक्ति अद्वैत होती है । यह प्रेमाभक्ति
है, जो तत्त्वज्ञानसे भी
विशेष है । शरणागत भक्त अपने-आपको भगवान्के समर्पित कर
देता है, अपने-आपको मिटा देता है । केवल
भगवान् ही रह जाते हैं । फिर भगवान्की तरफसे प्रेम होता है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
|