(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं अभ्यास करनेका निषेध नहीं करता, पर अभ्याससे तत्त्वकी
प्राप्ति हो जायगी, तत्त्वज्ञान हो जायगा‒यह नहीं मानता; क्योंकि अभ्यास करोगे तो जड़ताकी सहायता
लेनी ही पड़ेगी । जड़ताके द्वारा चिन्मयताकी प्राप्ति कैसे होगी ? जड़ताके त्यागसे चिन्मयताकी प्राप्ति होगी । जड़ताका सर्वथा त्याग कर दिया जाय
तो चेतनके सिवाय क्या रहेगा ?
संसारकी प्राप्तिमें क्रिया और पदार्थकी
प्रधानता है । परमात्माकी प्राप्तिमें शरणागति और निष्क्रियताकी प्रधानता है । जो सब जगह परिपूर्ण है, उसको क्रियासे कैसे
प्राप्त करोगे, बताओ ? आप जहाँ हैं,
वहाँ पूर्ण परमात्मा हैं । क्रियासे प्राप्ति उसकी होती है, जो देश, काल, वस्तु आदिसे दूर हो
। परन्तु मैं आपलोगोंको क्रियाका त्याग करनेके लिये नहीं कहता; क्योंकि आपके भीतर ‘करने’ का भाव, संस्कार रहता है ।
‘करने’ का भाव रहनेसे कुछ नहीं करो तो भी करना है और करो तो भी करना है !
अगर साधक यह बात भी स्वीकार कर ले कि
जो मिलता है और बिछुडता है, वह अपना नहीं है, तो उसको
तत्त्वज्ञान हो जायगा, मुक्ति हो जायगी, कल्याण हो जायगा ! अपने परमात्मा हैं, जो सदासे मिले हुए हैं और कभी बिछुडेंगे नहीं । इसलिये उनकी प्राप्तिके लिये
क्रिया करना मुख्य नहीं है । हम परमात्माको अपनेसे दूर मानते हैं‒इस मान्यताको हटानेके लिये क्रिया है ।
श्रोता‒जब क्रियासे
परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, तो फिर
आप क्रिया छोड़नेके लिये मना
क्यों करते हैं ?
स्वामीजी‒मनुष्य कुछ करेगा ही नहीं तो आलस्यमें, प्रमादमें,
नींदमें समय खराब करेगा ! इसलिये क्रिया छोड़नेके
लिये मना करता हूँ । सांसारिक भोगोंकी रुचि, रुपयोंकी चाहना, संसारका
आश्रय दूर करनेके लिये अभ्यास करो ।
मुख्य दो ही बात है‒प्राप्तकी ही प्राप्ति करनी है और अप्राप्तका
ही त्याग करना है । संसार अप्राप्त है; क्योंकि संसार अभीतक कभी किसीको मिला नहीं !
वस्तुके मिलनेकी पहचान यह है कि मिलनेके बाद फिर मिलनेकी इच्छा मिट जाती
है, आदमी तृप्त हो जाता है । फिर मिलना कुछ बाकी नहीं रहता ।
जैसे, बालक रोता है, पर जब माँ मिल जाती
है, तब वह माँके साथ चिपट जाता है, उसका
रोना मिट जाता है ।
मनुष्यजन्म केवल परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है ।
केवल आपकी इच्छा चाहिये । इच्छा जोरदार हो जायगी, दूसरी कोई इच्छा नहीं रहेगी तो परमात्मप्राप्ति
हो जायगी । दूसरी इच्छाओंको मिटानेका अभ्यास करो । मनमें किंचिन्मात्र भी कोई चाहना
न रहे । जीनेकी भी चाहना रहेगी तो परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी । एक मार्मिक बात है कि चाहनामात्रसे परमात्मा मिलते हैं, पर चाहनामात्रसे सांसारिक चीज नहीं मिलती । सांसारिक
वस्तुकी प्राप्तिमें तो प्रारब्ध है, पर परमात्माकी प्राप्तिमें
प्रारब्ध है ही नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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