(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒आप कहते हैं कि
किसीको बुरा न समझें, यह बात
समझमें नहीं आयी; क्योंकि किसीको बुराई करते हुए देखते
हैं तो हमारे मनमें उसके प्रति बुरा भाव
आ जाता
है !
स्वामीजी‒वह बुरा नहीं है, भगवान् कलियुगकी लीला
कर रहे हैं । आप बताओ, भगवान् कलियुगकी लीला कैसे करें ?
श्रोता‒अन्यायका प्रतिकार
करना चाहिये या नहीं ?
स्वामीजी‒अन्यायका प्रतिकार अवश्य करना चाहिये
। परन्तु अन्यायका प्रतिकार करते हुए भी भीतरमें दूसरेके हितका भाव पक्का रहना चाहिये
। अन्याय आगन्तुक चीज है, मूलमें नहीं है ।
श्रोता‒हमने अपनी ओरसे किसीको
कष्ट नहीं दिया, पर दूसरेको दुःख हो गया
तो हमें क्या करना चाहिये
?
स्वामीजी‒हाथ जोड़कर माफी माँग लो । अपना कोई
कसूर न हो तो भी माफी माँगनेमें कोई हर्ज नहीं । इससे आपकी बड़ी शुद्धि होगी, निर्मलता होगी । इसमें
संकोच नहीं करना ।
खास बात है कि संसारमें हमारा कुछ भी नहीं है.......कुछ भी नहीं है.......कुछ भी नहीं है ! परन्तु लोग सांसारिक वस्तुओं-व्यक्तियोंमे अपनापन छोड़ते नहीं, छोड़ना चाहते भी नहीं
! भीतरसे असली चाहना बहुत कम आदमियोंकी है ! सुनना एक व्यापार-सा समझ रखा है । इतना भी अच्छा है !
कुछ न करनेकी अपेक्षा कुछ करना अच्छा है‒‘अकरणात् मन्दकरणं श्रेयः’ । भीतरसे छूटनेकी
परवाह ही नहीं है ! परवाह हो तो भगवान्को पुकारो ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! हे मेरे प्रभो ! हे मेरे स्वामिन् !’ भगवान्की कृपासे ही ठीक होगा । हम तो इतना भी अच्छा
समझते हैं, बहुत बड़ी बात समझते हैं कि आप सत्संगमें आकर बैठ गये
! सज्जनो ! समय बीत जायगा, काम बनेगा नहीं !
सावधान हो जाओ । अपने भीतर लगन लगाओ और इसके लिये भगवान्से प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ ! हे मेरे स्वामिन् !
आपमें सच्चे हृदयसे लग जायँ’ ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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