(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒सूक्ष्मशरीर और कारणशरीरको छोड़ना हाथकी बात है
क्या ?
स्वामीजी‒बिल्कुल हाथकी बात है ! इसमें किंचिन्मात्र
भी सन्देह नहीं है । अगर हाथकी बात न हो तो कोई मुक्त नहीं हो सकता ! कैसे मुक्त होगा ? यह अभ्याससे नहीं छूटेगा, पर विवेकसे छूट जायगा । इसको आज, अभी छोड़ दो । तत्त्वज्ञानमें
समय नहीं लगता । समझमें नहीं आये तो मान लो कि हम तीनों शरीरोंसे अलग हैं, फिर अनुभव हो जायगा । इसमें अभ्यास नहीं है, विवेक है
। विवेकसे तत्काल काम होता है । मनुष्यशरीरकी जो महिमा है, वह विवेकको लेकर ही है ।
सच्ची बात सच्ची ही रहेगी । दो और दो चार ही होते हैं, तीन या पाँच कैसे हो
जायँगे ? इसमें अभ्यासकी जरूरत नहीं है, केवल स्वीकार करना है । अभी दीखे या न दीखे, पर बात यही
सच्ची है‒यह स्वीकार कर लो । अनुभव हो जायगा ! सच्ची बात स्वीकार नहीं करोगे तो क्या करोगे ? चौरासी
लाख शरीरोंमें सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर साथमें रहे, इसलिये जन्म-मरण हुआ । आप सूक्ष्मशरीर भी छोड़ दो और कारणशरीर भी छोड़ दो । ये दोनों प्रकृतिके
हैं, आपके नहीं हैं । इनको छोड़ दो तो मुक्ति है । अभी नहीं दीखे
तो भी सच्ची बातको स्वीकार कर लो तो वह दीख जायगी । चौरासी लाख योनियोंमें जब स्थूलशरीर
साथ नहीं रहा तो सूक्ष्म और कारणशरीर साथ कैसे रहेंगे ? जिस प्रकृतिका
स्थूलशरीर है, उसी प्रकृतिके सूक्ष्म और कारणशरीर हैं । ये प्रकृतिके
अंश हैं, आप परमात्माके अंश हो ।
श्रोता‒आप विवेककी
बात कहते हैं, पर वैराग्यके बिना विवेक दृढ़ नहीं होता !
स्वामीजी‒वैराग्य हो जायगा । विवेक पहले है, वैराग्य पीछे है ।
वैराग्य विवेकसे होता है । विवेककी बात आपको बता दी, आप स्वीकार
कर लो तो वैराग्य हो जायगा ।
किसीने शरणानन्दजीको पूछा कि आपका परिचय क्या है ? उन्होंने कहा कि शरीर
सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरतामें रहता हूँ‒यह मेरा
परिचय है । यही परिचय सबका है ।
श्रोता‒मैं नामजपका अभ्यास करता हूँ पर आप
कहते हैं कि अभ्यास नहीं करना चाहिये ?
स्वामीजी‒अभ्यास नहीं करना चाहिये‒यह मैंने कभी कहा ही
नहीं ! मैंने यह कहा कि अभ्याससे परमात्मप्राप्ति नहीं होती ।
उसमें कारण यह है कि अभ्यास जड़ताकी सहायताके बिना होता ही नहीं । जड़ताके द्वारा चिन्मयताकी
प्राप्ति नहीं होती ।
नामजप करना अभ्यास नहीं है, प्रत्युत
उपासना है । नामजप अभ्याससे ऊँची चीज है । उपासनामें भगवान्के
साथ सम्बन्ध जुड़ता है । मैं खुद रोजाना कीर्तन कराता हूँ तो यह अभ्यास नहीं है
तो क्या है ?
अगर मैं अभ्यासका निषेध करता हूँ तो फिर कीर्तन क्यों कराता हूँ ?
कीर्तनमें भगवान्के साथ सम्बन्ध होनेसे यह उपासना
है । अभ्यासमें वृत्तियोंका निरोध होता है‒‘तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः’ (योगदर्शन
१ । १३) ‘चित्तकी स्थिरताके लिये
प्रयत्न करना अभ्यास है’ । मुक्ति निष्कामभावसे होती है । अगर
निष्कामभाव न हो तो अभ्याससे मुक्ति नहीं होगी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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