।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७४, रविवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोतासूक्ष्मशरीर और कारणशरीरको छोड़ना हाथकी बात है क्या ?

स्वामीजीबिल्कुल हाथकी बात है ! इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है । अगर हाथकी बात न हो तो कोई मुक्त नहीं हो सकता ! कैसे मुक्त होगा ? यह अभ्याससे नहीं छूटेगा, पर विवेकसे छूट जायगा । इसको आज, अभी छोड़ दो । तत्त्वज्ञानमें समय नहीं लगता । समझमें नहीं आये तो मान लो कि हम तीनों शरीरोंसे अलग हैं, फिर अनुभव हो जायगा । इसमें अभ्यास नहीं है, विवेक है । विवेकसे तत्काल काम होता है । मनुष्यशरीरकी जो महिमा है, वह विवेकको लेकर ही है ।

सच्ची बात सच्ची ही रहेगी । दो और दो चार ही होते हैं, तीन या पाँच कैसे हो जायँगे ? इसमें अभ्यासकी जरूरत नहीं है, केवल स्वीकार करना है । अभी दीखे या न दीखे, पर बात यही सच्ची हैयह स्वीकार कर लो । अनुभव हो जायगा ! सच्ची बात स्वीकार नहीं करोगे तो क्या करोगे ? चौरासी लाख शरीरोंमें सूक्ष्मशरीर और कारणशरीर साथमें रहे, इसलिये जन्म-मरण हुआ । आप सूक्ष्मशरीर भी छोड़ दो और कारणशरीर भी छोड़ दो । ये दोनों प्रकृतिके हैं, आपके नहीं हैं । इनको छोड़ दो तो मुक्ति है । अभी नहीं दीखे तो भी सच्ची बातको स्वीकार कर लो तो वह दीख जायगी । चौरासी लाख योनियोंमें जब स्थूलशरीर साथ नहीं रहा तो सूक्ष्म और कारणशरीर साथ कैसे रहेंगे ? जिस प्रकृतिका स्थूलशरीर है, उसी प्रकृतिके सूक्ष्म और कारणशरीर हैं । ये प्रकृतिके अंश हैं, आप परमात्माके अंश हो ।

श्रोताआप विवेककी बात कहते हैं, पर वैराग्यके बिना विवेक दृढ़ नहीं होता !

स्वामीजीवैराग्य हो जायगा । विवेक पहले है, वैराग्य पीछे है । वैराग्य विवेकसे होता है । विवेककी बात आपको बता दी, आप स्वीकार कर लो तो वैराग्य हो जायगा ।

किसीने शरणानन्दजीको पूछा कि आपका परिचय क्या है ? उन्होंने कहा कि शरीर सदा मृत्युमें रहता है और मैं सदा अमरतामें रहता हूँयह मेरा परिचय है । यही परिचय सबका है ।

श्रोतामैं नामजपका अभ्यास करता हूँ पर आप कहते हैं कि अभ्यास नहीं करना चाहिये ?

स्वामीजीअभ्यास नहीं करना चाहियेयह मैंने कभी कहा ही नहीं ! मैंने यह कहा कि अभ्याससे परमात्मप्राप्ति नहीं होती । उसमें कारण यह है कि अभ्यास जड़ताकी सहायताके बिना होता ही नहीं । जड़ताके द्वारा चिन्मयताकी प्राप्ति नहीं होती ।

नामजप करना अभ्यास नहीं है, प्रत्युत उपासना है । नामजप अभ्याससे ऊँची चीज है । उपासनामें भगवान्के साथ सम्बन्ध जुड़ता है । मैं खुद रोजाना कीर्तन कराता हूँ तो यह अभ्यास नहीं है तो क्या है ? अगर मैं अभ्यासका निषेध करता हूँ तो फिर कीर्तन क्यों कराता हूँ ? कीर्तनमें भगवान्के साथ सम्बन्ध होनेसे यह उपासना है । अभ्यासमें वृत्तियोंका निरोध होता है‘तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः’ (योगदर्शन १ । १३) ‘चित्तकी स्थिरताके लिये प्रयत्न करना अभ्यास है’ । मुक्ति निष्कामभावसे होती है । अगर निष्कामभाव न हो तो अभ्याससे मुक्ति नहीं होगी ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे