।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७५, सोमवार
 अनन्तकी ओर     



श्रोतायहाँ सत्संगमें तो सब जगह भगवान् ही दीखता है, पर घर जानेपर, गृहस्थके वातावरणमें सब भूल जाते हैं ! कोई सुगम रास्ता बतायें ।

स्वामीजीसुगम रास्ता तो मैं बताता हूँ पर आप सुनते ही नहीं ! आप दो-चार मिनटमें, दस-पन्द्रह मिनटमें यह बात मनसे कहना शुरू दो कि हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं । करके देखो तो सही ! आपको कितना ही सुगम बतायें, आप करते ही नहीं ! जब करना ही नहीं है, तो सुगम हो तो क्या, कठिन हो तो क्या ! आप सुन लेते हैं तो यह भी आपकी कृपा है !

श्रोताअपनेमें कोई विकार नहीं हैऐसी धारणा करनेपर तत्त्वकी प्राप्ति शीघ्रतासे हो जाती है । इस विषयको आप बतायें, जिससे हमें इसका अनुभव हो जाय ।

स्वामीजीदेखो भाई, यह तमाशा नहीं है ! लगन होनी चाहिये । भीतरमें लगन हो कि तत्त्वज्ञान कैसे हो ? कहाँ जाऊँ ? किससे पूछूँ ? ऐसी लगन हो, फिर मैं बताऊँ तो आप करोगे, नहीं तो करोगे नहीं । हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’‒यह कोई कम नहीं है, बहुत बढ़िया चीज है । महीना-दो महीना करके देखो तो सही ! इससे बड़ी कोई चीज है नहीं !

श्रोताक्या राधाजीकी उपासनाके बिना भगवान् कृष्णको नहीं पाया जा सकता ?

स्वामीजीआप करके तो देखो ! कोरी बातें कहनेसे क्या लाभ ? शास्‍त्रमें ऐसा आता है, पर यह नियम नहीं है ।

श्रोताशरीरी जब शरीरको छोड़ देता है, तब मृत शरीरकी हड्डियाँ गंगाजीमें डालनेसे किसको लाभ होगा, शरीरको या शरीरीको ?

स्वामीजीशरीरीको लाभ होगा; क्योंकि उसने शरीरको अपना माना था ।

श्रोतादस वर्षोंसे एक प्रश्‍न मनमें बोझा बना हुआ है कि सत्संग करनेपर भी हमारी कथनी और करनीमें अन्तर क्यों रहता है ?


स्वामीजीआपका पक्‍का विचार नहीं हुआ है । पक्‍का विचार हो जाय तो कथनी और करनीमें फर्क मिट जायगा । जबतक आप पक्‍का विचार नहीं करेंगे, तबतक यह फर्क मिटेगा नहीं, चाहे सौ वर्ष क्यों न बीत जायँ ! लगन हो तो एक दिनमें फर्क पड़ जायगा ।